भावना सक्सैना – क्षणिका – 001
काव्य साहित्य | कविता - क्षणिका भावना सक्सैना1 Mar 2024 (अंक: 248, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
1.
आये तो दर कई
बाँधा नहीं कहीं . . .
मन्नतों का धागा
संग लेकर आ गई हूँ
मेरी ख़ुशी का सारा
दारोमदार मुझ पर।
2.
पाँव के नीचे
खड़कते हैं
भूरे पीले पत्ते,
और दिल में,
सूख चुके रिश्ते
पत्ते मिल जाते धरती में
धरती छिपा लेती अंक में
सूखे रिश्ते गड़े रह जाते
बन कर नश्तर।
3.
किसी मोड़ पर लौटना
मुमकिन नहीं होता
फिर भी ज़िन्दा रहता है
वह मोड़ ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी भर, हर मोड़ पर।
4.
कोई विश्वास जोड़े रखता है
किरचे-किरचे हुआ मन
बचाता बिखरने से,
टूटना विकल्प कहाँ
उनके लिए जो
जोड़ते हैं टूटे को।
5.
मन बाग़ी
मन दाग़ी
फिर भी
मन से
मन को निकालना
सम्भव तो नहीं।
6.
लिबर्टी का प्रतीक पत्थर सम
संगमरमर प्रेम का
सदियों से स्थापित ये प्रतीक
लगते हैं कितने बेमानी
होती हूँ जब रूबरू
इर्द गिर्द चलते फिरते
हौसले के जीवित प्रतीकों से।
7.
चूड़ी, बिछिया, बिंदिया
पायल कंगना
ये आभूषण
माने गए
सुहाग के प्रतीक
पीढ़ी दर पीढ़ी,
सोचती हूँ
होना चाहिए था
दाम्पत्य का प्रतीक
खिला हुआ चेहरा
तृप्त मन और स्वस्थ देह।
8.
खनखना जाती है
बालकनी में लटकी
घण्टियाँ बस
अब पूर्वा
मन को नहीं छूती।
9.
जी उचाट हो गया है
सुबह पाँच से नौ की दौड़ से
वह
अब आदमी की तरह
दफ़्तर जाना चाहती है।
10.
विदा होती बेटी
संग ले जाती है
भरा मन और
विश्वास
अपनेपन का,
वक़्त के साथ
रीत जाता है मन
झर जाता है विश्वास
गहरा जाता
परायेपन का एहसास।
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