असाधारण!
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
साधारण सा शब्द है
असाधारण!!
छिपाए हुए भीतर
अनन्त सम्भावनाएँ।
यहाँ हर ओर होड़ है
होने की असाधारण . . .
तो चलो समझें,
प्रयास कर गढ़ें
इसकी परिभाषाएँ
कि समझ पाएँ अंतर
आकाश सा विशाल
जो भर देता है एक 'अ'
इस साधारण से शब्द में
कौन होता है असाधारण?
हम सा, तुम सा ही?
थोड़ी बड़ी सी या दोहरी नाक,
बहुत बड़े या बिना कान वाला
बहुत लंबा सा, या छोटे क़द वाला
विशाल हृदय वाला कोई उदारमना
या शायद बिना अंतरात्मा वाला!
शायद प्रत्यक्ष कोई भिन्नता नहीं
मनोवृत्ति की ही हैं विषमताएँ।
कहीं पढ़ा था . . .
पैरानॉर्मल होता है असाधारण
अर्थात्, वह इस दुनिया का ही नहीं!
परे है मानवी भावनाओं
प्रेम, करुणा, सौहार्द की सीमाओं से!
लिखा होता है राजपत्र पर भी
असाधारण
कि उसमें होते हैं फ़रमान कईं
सरोकार नहीं भावनाओं से जिनका कोई
फिर भी
तटस्थ, द्वेषरहित, समभाव होता है
क्या असाधारणता के मायने यही?
पहले रामानुज सरीखे को कहते थे
असाधारण
आज की असाधारणता
एक ओढ़ा हुआ आवरण
अपने गढ़े शब्दों में
स्वयं को उलझाए।
एक असाधारण चाहता
एक ही रहे वह
दूसरा खड़ा न हो पाए, इसके लिए
काटता है औरों की सीमाएँ
फ़रेब के जाल रचकर
गढ़ लेता है इर्द-गिर्द अपने
झूठ के क़िले
रहता है अपने बनाये मोहजाल में
शून्य करता सम्वेदनाएँ।
क्या स्वार्थी होता है असाधारण?
किन्तु स्वार्थ तो बहुत तुच्छ है
एकदम साधारण!
फिर, कौन होता है असाधारण?
जो भी हो . . .
जैसा भी हो
जिसे नाज़ है
होने पर अपने असाधारण
एक बार खोजे दूसरों की दृष्टि से
अपनी साधारणताएँ
साधारण सी इस दुनिया में
वो बनें रहें असाधारण,
जिन्हें लगता है कि
असाधारण होना बड़ी बात है
मैं अपनी सीमाओं में ठीक हूँ
सहेज अपनी साधरणताएँ!
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