दीवारें
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना1 Sep 2019
दीवारें
कभी होती नहीं खाली
उनमें होती हैं
परछाइयाँ युगों की
बसी होती हैं
कहानियाँ कई
कुछ सूखी, कुछ सीली।
फिर-फिर रँगे जाने पर भी
आँखें खोज लेती हैं
उनमें बसे चित्र मन के
नेह, ममता और वात्सल्य के,
कहीं-कहीं होते हैं चिकोटे
दर्द भरे किसी दिन के, और
वहीं रह जाती हैं वे छिली।
घुप्प अँधेरे में उभर आती हैं
कुछ दमकती रेखाएँ
रोशन करती हैं जो
दिनभर अँधेरे में डूबे
हताश हो आए मन को।
कि भीतर की लौ को चाहिए
एक जगह जहाँ बाहर की
हवाओं से आराम हो।
बस इसीलिए
बाँधना मत दीवारों को
कुछ रंगीन चित्रों में,
टाँगना मत उन पर
चौखुटे फ़्रेम में जड़े
किसी और की
कोरी कल्पनाओं के रूप...
कि उनमें हैं रंग असंख्य
स्मृतियों के, आकांक्षाओं के
और अनगिनत उम्मीदों के।
उनमें चिड़ियाँ हैं
सपनों के सफ़ेद पंखों वाली
जो रह-रह भरती हैं उड़ान
कि उन्हें पाना है एक मुक़ाम।
उन सफ़ेद पंखों में
इंद्रधनुष के रंग है
इन रंगों को
बाँधना नहीं खाँचों में
कि कोरों से बह
एक दूसरे में घुल मिल
बनते हैं रंग नए।
लेकिन जब चढ़ाए जाते हैं
परत दर परत
एक दूसरे का अस्तित्व
लील जाने की चाह में
रंगों पर चढ़े रंग
हो जाते हैं बेरंग...
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