माया के भ्रम
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
अपने जैसा होने को भी
क्या क्या जतन किए जाते हैं।
मैं जिसका अस्तित्व नहीं है
पोषित उसे किए जाते हैं।
मैं ऐसा, मैं अलग और से
कितने भरम लिए बैठे हैं
भरम बनाए रखने को ही
कितने कष्ट सहे जाते हैं।
सुख-दुख से भी मिलते ऐसे
छवि मलिन हो जाए कहीं न
खुल कर हँसने, खुल कर रोने
पर भी पहरे दिए जाते हैं।
मैं की मय के चूर नशे में
अक्स दिखे ज्यों जल पर छाया
अक्स बचाए रखने को ही
श्वासें मंद किए जाते हैं।
श्वासों के आने-जाने में
मैं का कुछ अस्तित्व नहीं है
खेल निराले माया के सब
वश माया के हुए रहते हैं
जब तक बँधी डोर श्वास की
श्वास-श्वास पर जपते जायें
हरि सुमिरन करने से ही तो
सब बँध अनर्थ के कट जाते हैं।
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