नदी नहीं जानती सागर को
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना15 Jul 2025 (अंक: 281, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
नदी
नहीं जानती सागर को,
न उसका विस्तार,
न उसकी गहराई।
न उसे यह ज्ञात कि
कहाँ जाकर थमेगी यात्रा।
बस बहती है वह
जैसे शिशु चलता है
बिना दिशा जाने,
जैसे बीज अंकुर बन
धूप की ओर खिंचता है
बिना धूप को समझे।
उसे न चिंता कि सामने
चट्टान है या रेगिस्तान,
न शंका कि पथ में
कभी सूखा भी होगा।
उसकी गति कोई योजना नहीं,
कोई निर्णय नहीं
बस एक सहज उत्तरदायित्व,
अपने आप से,
अपने स्रोत से।
वह किसी सागर के स्वप्न में
नहीं पलती,
उसके भीतर कोई रेखाचित्र नहीं
किसी अंतिम मिलन का।
फिर भी
वह पहुँचती है
जहाँ मिट जाता है उसका नाम,
जहाँ वह होकर भी
अलग नहीं रहती।
और शायद
यही है पूर्णता
जो बिना जानने के,
बिना चाहने के
स्वतः घटित होती है।
नदी की ही तरह
एक दिन जीव भी
अपने बोझ, अपने नाम,
अपनी आकांक्षाओं से थककर
उस अनंत की ओर बढ़ता है
बिना दिशा जाने।
और जब वह पहुँचता है
तो न कोई उद्घोष होता है,
न कोई उत्सव।
बस मौन होता है
जहाँ “मैं” लहर बनकर
अनंत के सागर में खो जाता है।
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