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जिज्ञासा

दो दिन से मृत्यु से जंग लड़ते उस सोलह वर्षीय जवान ने आज आँखें खोली थीं . . . सर पर गहरी चोट थी, अभी ख़तरे से बाहर भी नहीं था। 

आती-जाती मूर्छा के बीच अपना नाम व घर का पता बता दिया था। घरवालों को सूचित कर दिया गया था, वह पहुँचते ही होंगे। 

कराह सुनकर नर्स उसके क़रीब हो गयी, उसकी बाँह सहलाने लगी, सूजी हुई आँखों को ज़रा सा खोलने का प्रयत्न करते हुए, उसने फुसफुसा कर पूछा, “सिस्टर दंगा ख़त्म हो गया?” 

नर्स का सिर न में हिला था . . . 

दर्द भरे स्वर में वह बोला, “नर्स दंगा ख़त्म होने तक जीवित रहना चाहता हूँ।”

“तुम ठीक हो जाओगे“

“नहीं बस यह देखना चाहता हूँ, कि दंगे के बाद क्या बदलता है!”

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