यात्रीशाला
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
समय ठहरता नहीं,
बहता रहता है . . .
हवाई अड्डे का प्रवेश-द्वार
संसार की देहरी सा है,
हर आगमन नई शुरूआत,
हर प्रस्थान अनिवार्यता।
यहाँ आते-जाते हैं लोग
कभी हँसी की लहर छोड़ते,
कभी आँसुओं की धुँध।
हर चेहरा एक कहानी है,
हर टिकट स्वप्न की उड़ान,
हर घोषणा है संकेत
अगले अध्याय का।
आगमन जन्म है
जीवन प्रतीक्षालय,
और मृत्यु अंतिम उड़ान
अज्ञात गंतव्य की ओर।
उड़ते जहाज़ आत्माओं से,
नीले गगन की ओर उन्मुक्त,
पीछे छोड़ते
स्मृतियों की चमकती लकीरें,
खिड़की से झाँकता यात्री
सँजो लेता है इन्हें मन में।
यहाँ चहल-पहल कहती है
जीवन ठहराव नहीं, यात्रा है।
हर मिलन क्षणभंगुर,
हर बिछोह निश्चित।
शायद इसी लिए हवाई अड्डा
हमेशा चमचमाता रहता है,
क्योंकि यहाँ कोई ठहरता नहीं,
कोई अपनी जड़ें नहीं जमाता।
हवाई अड्डे पर खड़े होकर
एक गहरा एहसास होता है
हम सब यात्री हैं,
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना कि
कोई उड़ान दूर देश तक जाती है,
तो कोई अपने नगर लौट आती है।
अंततः मंज़िल सबकी
उस अनंत आकाश में है
जहाँ समय थम जाता है,
जहाँ कोई घोषणा नहीं होती,
सिर्फ़ शाश्वत निस्तब्धता
और शेष रह जाता है
अनंत का आलिंगन
और तभी समझ आता है
यह हवाई अड्डा ही नहीं,
पूरा संसार है
एक विराट यात्रीशाला,
जहाँ हर आगमन उत्सव है,
हर प्रस्थान नियति,
और बीच का हर क्षण
सिर्फ़ प्रतीक्षा और यात्रा का गीत।
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