अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आवाज़ें

क्या है ये आवाज़ें
वो जो सुनाई देती हैं,
या वो भी जो सुनाई नहीं देती,
कुछ धीमी, कुछ तेज़,
गाड़ियों की, लोगों की
और भी न जाने
कौन कौन सी आवाज़ें,
कितनी आवाज़ें
जो दिन रात गूँजती हैं,
करती हैं सफ़र दिन से रात,
रात से दिन का
बिन रुके बिन थमे।

दिन और रात की आवाज़ें
अलग अलग हैं,
कुछ जो दिन को ही
सुनाई देती हैं, और
रात को सोने चली जाती हैं।
और कुछ जो दिन रात जागती
रहती हैं बिना रुके ।
अभी भी कुछ आवाज़ें
जो जाग रही हैं
जैसे-जैसे घड़ी के कांटे
रात की ओर सरक रहे हैं,
धीरे-धीरे कर
कुछ आवाज़ें जो दिन की थी
धीमी हो रही हैं,
अब तो बस एक दो गाड़ियों की
कुछ देर ठहर कर आती हैं आवाज़ें
जो मुझे सुनाई पड़ रही हैं,
कुछ और भी आवाज़ें हैं
जो मेरे इस
कमरे मे सुनाई दे रही हैं,
टिक टिक करती पास ही
टेबल पर रखी अलार्म घड़ी,
घन घन करते पंखे के अलावा
यहाँ एक और आवाज़ है जो
बाक़ी सुनी हुई आवाज़ों से अलग है,
हर सुनी हुई आवाज़ को पहचानती हूँ,
पर इस आवाज़ से अंजान हूँ,
ये आवाज़ है ख़ामोशी की आवाज़।

हाँ, ख़ामोशी की आवाज,
कोई अल्फाज़ नहीं हैं इसके
ना कोई आवाज़,
ऊपर से शांत होते हुए भी
भीतर ही भीतर
कितनी आवाज़ें हैं इसकी
क्या ये धड़कनों की आवाज़ है
या मन मे चलते ख़्यालों की
या कुछ और जिन से
मैं खुद भी अनजान हूँ।

पर ये जो ख़ामोशी की आवाज़ है,
शाम को सुनसान सड़क से आती
साँय साँय करते झीगुरों की आवाज़ों से,
अँधेरे के सन्नाटे को चीर कर आती
सियारों की हुआँ हुआँ की आवाज़ों से,
दूर से भौंकते कुत्तों की भौं भौं से,
भी कहीं ज़्यादा डरावनी होती हैं।

सुना है कि ख़ामोशी की इन
आवाज़ को हमें सुनना चाहिए,
मैं भी सुन रही हूँ,
ख़ामोशी की आवाज़ों को
कोई भी आवाज़ साफ़ नहीं है।

कुछ आवाज़ों का पीछा करते
बड़ी दूर निकल जाती हूँ, और
फिर वो आवाज़ेंअँधेरे में कहीं
गुम जाती हैं, और मैं भी...
ऐसा कुछ वक़्त तक चलता है,
और फिर कोई आवाज़ मुझे
उजाले की दहलीज़ पर छोड़ जाती है -
बस मैं इस रात के मंज़र में
यूँ ही आवाज़ों के बीच खेल रही हूँ।
ये आवाज़ें कैसी हैं
जिन्हें मैं सुन रही हूँ नहीं पता
ये आवाज़ें ही हैं, या शोर है,
ख़ामोशी है, या सन्नाटा क्या है ये??
ये तो ज़ेहनी मिज़ाज़ ही तय करेगा मेरा
किसे क्या बनाना है,
पर ये आवाज़ें कभी बंद नहीं होंगी
और ना ही ख़त्म होंगी,
ये आती रहेंगी,
बस कभी धीमी हो जाएँगी,
तो कभी तेज़ आवाज में
चीखेंगी चिल्लाएँगी,
कभी बाहर से आती आवाज़ों में,
तो कभी अंदर से आती
ज़ेहनी आवाज़ों में।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं