आवाज़ें
काव्य साहित्य | कविता नेहा दुबे28 Sep 2017
क्या है ये आवाज़ें
वो जो सुनाई देती हैं,
या वो भी जो सुनाई नहीं देती,
कुछ धीमी, कुछ तेज़,
गाड़ियों की, लोगों की
और भी न जाने
कौन कौन सी आवाज़ें,
कितनी आवाज़ें
जो दिन रात गूँजती हैं,
करती हैं सफ़र दिन से रात,
रात से दिन का
बिन रुके बिन थमे।
दिन और रात की आवाज़ें
अलग अलग हैं,
कुछ जो दिन को ही
सुनाई देती हैं, और
रात को सोने चली जाती हैं।
और कुछ जो दिन रात जागती
रहती हैं बिना रुके ।
अभी भी कुछ आवाज़ें
जो जाग रही हैं
जैसे-जैसे घड़ी के कांटे
रात की ओर सरक रहे हैं,
धीरे-धीरे कर
कुछ आवाज़ें जो दिन की थी
धीमी हो रही हैं,
अब तो बस एक दो गाड़ियों की
कुछ देर ठहर कर आती हैं आवाज़ें
जो मुझे सुनाई पड़ रही हैं,
कुछ और भी आवाज़ें हैं
जो मेरे इस
कमरे मे सुनाई दे रही हैं,
टिक टिक करती पास ही
टेबल पर रखी अलार्म घड़ी,
घन घन करते पंखे के अलावा
यहाँ एक और आवाज़ है जो
बाक़ी सुनी हुई आवाज़ों से अलग है,
हर सुनी हुई आवाज़ को पहचानती हूँ,
पर इस आवाज़ से अंजान हूँ,
ये आवाज़ है ख़ामोशी की आवाज़।
हाँ, ख़ामोशी की आवाज,
कोई अल्फाज़ नहीं हैं इसके
ना कोई आवाज़,
ऊपर से शांत होते हुए भी
भीतर ही भीतर
कितनी आवाज़ें हैं इसकी
क्या ये धड़कनों की आवाज़ है
या मन मे चलते ख़्यालों की
या कुछ और जिन से
मैं खुद भी अनजान हूँ।
पर ये जो ख़ामोशी की आवाज़ है,
शाम को सुनसान सड़क से आती
साँय साँय करते झीगुरों की आवाज़ों से,
अँधेरे के सन्नाटे को चीर कर आती
सियारों की हुआँ हुआँ की आवाज़ों से,
दूर से भौंकते कुत्तों की भौं भौं से,
भी कहीं ज़्यादा डरावनी होती हैं।
सुना है कि ख़ामोशी की इन
आवाज़ को हमें सुनना चाहिए,
मैं भी सुन रही हूँ,
ख़ामोशी की आवाज़ों को
कोई भी आवाज़ साफ़ नहीं है।
कुछ आवाज़ों का पीछा करते
बड़ी दूर निकल जाती हूँ, और
फिर वो आवाज़ेंअँधेरे में कहीं
गुम जाती हैं, और मैं भी...
ऐसा कुछ वक़्त तक चलता है,
और फिर कोई आवाज़ मुझे
उजाले की दहलीज़ पर छोड़ जाती है -
बस मैं इस रात के मंज़र में
यूँ ही आवाज़ों के बीच खेल रही हूँ।
ये आवाज़ें कैसी हैं
जिन्हें मैं सुन रही हूँ नहीं पता
ये आवाज़ें ही हैं, या शोर है,
ख़ामोशी है, या सन्नाटा क्या है ये??
ये तो ज़ेहनी मिज़ाज़ ही तय करेगा मेरा
किसे क्या बनाना है,
पर ये आवाज़ें कभी बंद नहीं होंगी
और ना ही ख़त्म होंगी,
ये आती रहेंगी,
बस कभी धीमी हो जाएँगी,
तो कभी तेज़ आवाज में
चीखेंगी चिल्लाएँगी,
कभी बाहर से आती आवाज़ों में,
तो कभी अंदर से आती
ज़ेहनी आवाज़ों में।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं