काश…!
काव्य साहित्य | कविता नेहा दुबे6 Feb 2017
अच्छा होता कि हम बच्चे होते
समझदार नहीं नासमझ होते
छोटे से हाथ होते पर हिम्मत
आसमान को छूने की होती।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
पास ना कोई ख़ज़ाना होता,पर
गुल्लक में डैडी से ज़िद कर
जोड़े गए पैसों से, पूरी दुनियाँ
ख़रीद लेने का जज़्बा होता।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
रूठने का भी एक अलग अंदाज़ होता
दोस्ती भी बस छोटी उँगलियों
के मिलने भर से होती।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
कई बार गिरते पर उठ कर
बस शान से, जीते ठोकरों
से सम्भलकर चलना सीख लेते।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
मिट्टी के घरौंदे ही कभी
सच के घर बन जाते, जहाँ
हम बस ख़ुशियाँ ही रखते
फ़िक्र को तो जैसे "नो एंट्री"
का बोर्ड दिखाते।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
करते कई मनमानियाँ तो, कभी
करते ज़िद चाँद को छूने की
तो सच में छू भी लेते उसे
फर्श पर बने बिम्ब में और
उस ज़ीत में फ़ख्र से मुस्कुराते।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
मुट्ठी में हौंसले ले घूमते
रात को सोते तो किसी चीज़
की परवाह ना होती, ना कल की
ना आज की, हर लम्हें को जीते
हर पल में ख़ुश रहते और
हर हाल में में मुस्कुराते।
अच्छा होता कि हम बच्चे होते।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं