अब न स्वाँग रचो
काव्य साहित्य | कविता मोहित त्रिपाठी15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
जो सच है वह सच है 
खुलकर इसको स्वीकार करो, 
झूठ का पर्दा उठ चुका है 
अब न स्वाँग रचो। 
 
वर्षों झेली जो ग़ुलामी 
उस ग़ुलामी के चिह्नों से, 
भावी पीढ़ी के जन-मन को
मुक्त करो, आज़ाद करो 
अब न स्वाँग रचो। 
 
क्यों बनते हमदर्द उनके 
जिन्होंने देश को गहरे दर्द दिए। 
बहनों का सुहाग उजाड़ा
माताओं के कई लाल 
उनसे छीन लिए। 
 
जिस विभाजन की पीड़ा को 
देश अब भी भूल न पाया है 
क्या ऐसी वह मजबूरी है? 
जो राष्ट्र तोड़ने वाली ताक़तों से 
तुम्हारा अटूट नाता है। 
 
झूठ का पर्दा उठ चुका है 
अब न स्वाँग रचो। 
 
बम बारूदों विस्फोटों की 
गूँज अभी भी ज़िंदा है, 
दंगों में मरते कटते इंसानों की 
चीत्कार अभी भी ज़िंदा है। 
 
तुम आतंक परस्तों के 
माँ-बाप बने क्यों फिरते हो? 
बतलाओ क्या मजबूरी है जो 
भारत माँ की जय 
कहने में डरते हो? 
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