अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शिक्षक

शिक्षक तुम मानवता के दीपक बन 
फैलाते हो इस जग में उजियारा 
अज्ञानता का तम नाश करके, 
पथ प्रशस्त करते हो हमारा। 
 
हे जन के शिक्षक राष्ट्र निर्माता 
नैतिक मूल्यों से सिंचित कर, 
देते शिष्यों के जीवन लता को 
तुम सुदृढ़, सशक्त सहारा। 
 
अनुशासन का पाठ पढ़ाते 
कर्तव्यों का बोध कराते 
हार के जिस क्षण मनोबल टूटे, 
तुम दे धैर्य सम्बल बन जाते। 
 
अनपढ़, निरक्षर को ज्ञानी बनाते 
शिक्षा के गरिमा की पहचान करा, 
जग में सम्मान का अधिकारी बनाते 
करें श्रेष्ठ कर्म जीवन में, ये वर चाहते। 
 
सहज सरल कर्मठ व्यक्तित्व से 
प्रेरित हम सबको करते हो, 
अनुचित कुछ कभी जो मन में आये 
उसको करने से हम डरते हों। 
 
सदाचार की सीख तुम्हारी 
कभी न भूले कभी न बिसरें, 
जटिल कठिन विपदाओं में 
तप कर सोने सा निखरें। 
 
हे जन के शिक्षक राष्ट्र निर्माता 
कच्ची मिट्टी से कोमल मन को, 
कुम्हार से गढ़ते व्यक्तित्व को
चरित्र में सद्गुण चन्दन लगाते हो। 
 
तेरे उपकार का पार कहाँ पाते हैं 
हम श्रद्धा से शीश झुकाते हैं, 
कर कमल चरण रज का पूजन 
तेरा वंदन, अभिनन्दन गाते हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं