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अंत से पहले मिलनी है

ख़्वाहिश, जो मुकम्मल
कब से ही ना हुई है
राहें ही सफ़र में
सपनों के संग चली हैं
 
इस मोड़ पर मुसाफ़िर 
अक़्सर ही रुक गए थे
मंज़िल की कोई, आहट
ना पाके थम गए थे
 
अब है, यही गुज़ारिश
तुम साथ मेरे चल दो
पास ही है साहिल
अटल सी आस भर दो
 
यूँ तो गिरते गिरते
आँखों में ख़्वाब भरते
चलते हुए शहर में
गाँवों के कुछ, हैं क़िस्से 
 
माँझी की आँख कब से
देखने को मंज़र
तन का लहू विचरता
धड़कनों से कहता 
 
इंद्र को जगाए
कर्म ऐसा कर तू
प्रणाम कर अनंत को
भीष्म सा निखर तू
 
तुम अभी खड़े हो
इस वक़्त को सँभालो
उस पार है वो मुमकिन
जिस के लिए ढले हो
 
हो जाएगी तुम्हारी 
जिस के लिए अड़े हो
तमन्ना को फूल बना के
खिलाने ही तो चले हो
 
मिट्टी में बनके मिट्टी
सीखना है मिलना
हिम शिखर पे ध्यान
गल के, भी है धरना
 
वो आग भी जलाए
तो पवन सा बहना
मेरी प्यास है समंदर
कह राह पार करना
 
छुपी परे आयामों के 
जो दृग में मंज़िल है
निर्देशित होकर सत्ता से
अंत से, पहले मिलनी है
 
अंत से, पहले मिलनी है
अंत से, पहले मिलनी है! 

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