बाबुल तेरी गलियाँ
काव्य साहित्य | कविता भारती परिमल15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती हैं
छूटी सखी-सहेलियाँ याद आती हैं
बहती पवन लाई है
सौरभ का संदेशा
मुझे अधखिली कलियाँ याद आती हैं।
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती हैं
गरमी के वो दिन थे
पूरी छत बिस्तर बन जाती थी
बादल में लुकते-छिपते तारे थे
किसी भटके परिंदे ने पंख पसारे थे
चंदा ने चाँदनी बिखराई थी
हवाओं ने लोरी गुनगुनाई थी
ऐसे में पास मेरे
दादी का दुलार और
बाबा का प्यार था
सपनों का संसार था और
माँ की बाँहों का हार था
भाइ-बहनों की तकरार के बीच
अपनी अठखेलियाँ याद आती हैं
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती हैं।
गुलाबी जाड़ों में ही
माँ को चिंता सताती थी
हाथ-पैर में हमारे
तेल की परतें जमती जाती थी
रजाई-कंबल से जुड़ता था नाता
काॅपी-किताबों में झुकता था माथा
टिमटिम लालटेन की रोशनी में
अक्षरों का ज्ञान लेते थे
पढ़ाई से अधिक मस्ती में
हम तो हिलोरें लेते थे।
देर रात जाड़ों में लौटते बाबा की
साइकिल की घंटियाँ याद आती हैं
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती हैं।
बारिश की बूँदें गिरते ही
मन मयूर बन जाता था
तिनक-धिन-ताना
वो नाचता जाता था
काग़ज़ की बनती थी नाव
बिना चप्पल के ही दौड़ते थे पाँव
पोखर और नाले को नदी बनाकर
नाव बहाते जाते थे
हम छपाक-छई भीगते जाते थे
छींकों का जब दौर चलता था
बाबा की फटकार
माँ का दुलार साथ-साथ चलता था
आज यादों की पगडंडियों पर
वो बूँदों की लड़ियाँ याद आती हैं
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती हैं।
कहने को तो छूटा तुम्हारा साथ
यादों ने अब भी थामा मेरा हाथ
कभी धूमिल न होती यादें
हरदम करती ये ख़ुद से फ़रियादें
भूल गई जो बाबुल की गलियाँ
तो खिलेगी न कभी कोई कलियाँ
पल-पल बीती बतियाँ याद आती हैं
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती हैं।
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