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बेड नम्बर दस

उसने हाथ का कौर (निवाला) मुँह में डाला। निवाला नहीं मुट्ठी कहेंगे उसे। सामने पेपर प्लेट में पके हुए चावल के दाने दिख रहे थे। दाल सब्ज़ी तो नहीं थी पर चावल का रंग मटमैला था। शायद उसने सबको एक ही साथ मिला लिया होगा। उसने और एक मुट्ठी मुँह में डाली और इधर-उधर नज़रें घुमाई। नज़रों से लगा कि वह किसी को खोज रही थी या किसी से छुपना चाह रही थी ताकि कोई उसे खाते हुए न देख ले। मेरे सामने की कुर्सियों की क़तार में एक पर वह भी बैठी हुई थी। अन्य कुर्सियों पर कई अन्य लोग बैठे थे। कुर्सियाँ एक दूसरे से चिपकी हुई थीं पर लोग दूर-दूर नज़र आ रहे थे। कोरोना वाली सोशल डिस्टेन्सिंग थी या लोग ही कम थे समझ नहीं पाई मैं क्योंकि कई साये अग़ल-बग़ल भी दिख रहे थे। मैंने सोच लिया कि वे एक ही परिवार के होंगे। उसने और एक मुट्ठी मुँह में डाली और बाएँ हाथ से काले रंग के बैग में परेशान सी कुछ ढूँढ़ने लगी। अगले ही पल फोन हाथ के साथ बैग से निकलकर कान से चिपक गया। पहले होंठ बिसूरे फिर आँखें गीली हुईं। दाहिने हाथ के पिछले हिस्से से वह आँखों को तब तक पोंछने की कोशिश करती रही जब तक फोन कान पर चिपके रहे। बीच-बीच में होंठ भी गोल होते हुए दिख रहे थे और फुसफुसाहट की आवाज़ भी आ रही थी पर बात समझना मुश्किल था। यहाँ भाषा और दूरी दोनों ही मेरी जिज्ञासा बढ़ा रहे थे। मैं जब तक कुछ समझने की कोशिश करूँ तब तक फोन कान से निकलकर वापस बैग में क़ैद हो गया और हाथ चावल को फिर से गोल करने लगा। उसने और एक मुट्ठी मुँह में डाली। तभी पीछे के गेट से एक स्त्री आई और बग़ल की ख़ाली कुर्सी पर बैठ गई। हाथ अनायास ही रुक गए उसके। कुछ बोला उसने पर मैंने सुना नहीं। आँखों की बूँदें गाढ़ी होती देखती रही मैं। उसने पेपर प्लेट को मोड़ा और कुर्सियों के बाद कोने से सटे डस्टबिन में डाल आई। मानो किसी अनचाही वस्तु से नजात पा ली हो। बैग से कपड़ा निकालकर तत्काल रूप से हाथ भी पोंछ लिए। मुड़ी-सिकुड़ी चुन्नी ने आँखों को सुखाने में मदद की। वह उससे तब तक आँखें पोंछती रही जब तक आँसू आँखों में न सिमट गए। 

यह वही स्त्री थी जिसने कल मुझे मेरा फोन चार्ज करते हुए देख तेलुगु में पूछा था। “मैडम कोंचम चार्जर ईस्तरा? फोन डिस्चार्ज अईंदी।” जिसके अर्थ का अनुमान मैंने इन शब्दों से लगा लिया था कि “मैडम फोन का चार्जर देंगे क्या, फोन डाउन है मेरा।” और मैंने उसके हाथ में फोन देखकर टूटी-फूटी तेलुगु में जवाब दिया था जिसका अर्थ था कि “ये आइफोन का चार्जर है आपके फोन में नहीं आएगा।” उसने अपना फोन देखा, फिर मेरा चार्जर और पलट कर लाचार-सी अपनी कुर्सी पर बैठ गई थी। उसके बग़ल में एक अधेड़ उम्र का पतला-सा आदमी भी था जिसका फोन पहले ही चार्जिंग पर लगा हुआ था और जिसे वह बार-बार उठकर देख रहा था। फोन रिंग होने पर भी बग़ैर चार्जर से निकाले वह कान में लगा लेता। एक प्लग पर उसने पूर्णतः अपना अधिकार जमा लिया था। इसकी वजह का अनुमान मैंने उसकी मजबूरी से आँक लिया जो फोन में बैट्री की ख़राबी हो सकती थी। 

मेरा मानना था कि अपोलो जैसे हॉस्पिटल के आईसीयू वार्ड के वेटिंग हॉल में सिर्फ़ ‘बड़े लोग’ यानी अमीर लोग ही होते हैं। वह बड़े लोगों में थी या नहीं मुझे नहीं पता परन्तु उम्र 40 के आस पास रही होगी। वहाँ बैठे अधिकतर चेहरे शांत और आँखें उदास थीं। हवा में एक अजीब सा भारीपन होता था जिसे मिलने-जुलने वालों की सांत्वना भी हल्का नहीं कर पाती थी। हँसी कभी-कभार यदि उधर से गुज़र भी जाती थी तो खोखलेपन को नहीं छिपा पाती थी। पिछले दो दिनों से उसके हाव-भाव को मैं पढ़ने की कोशिश कर रही थी। एक दिन साड़ी और दूसरे दिन सलवार क़मीज़ में नज़र आई थी वह। ऐसे कई लोग वहाँ थे जो किसी अपनों के लिए या अपनों की वजह से आए हुए थे। कई बार उनके यहाँ होने की वजह जानने की उत्सुकता होती। मन करता कि पूछ लूँ कि उनके अपने किस स्थिति में हैं वहाँ। परन्तु तथाकथित मानसिकता कि दूसरों के प्रॉब्लम में टाँग अड़ाना असभ्यता की निशानी है, मैं चाह कर भी पूछ नहीं पाई। शायद सभ्यता का नया पाठ उसने नहीं पढ़ा था और पूछ लिया था मुझसे, तेलुगु में ही, “कौन है यहाँ पे आपका . . .?” मैं जवाब दे पाऊँ उससे पहले ही उसने और एक सवाल दागा, “क्या हुआ है?” मैंने कह दिया कि एक्सीडेंट हुआ है मेरे भाई का। 

“मेरे पति का भी एक्सीडेंट ही हुआ है।” 

यह कहकर अनजान के मामले में टाँग अड़ाने की असभ्यता से बचा लिया था उसने मुझे। अब मैं आगे और जानने को उत्सुक थी। वह कहती गई कि उसके पति के सिर में चोट लगी है। रात को सेक्यूरिटी की ड्यूटी करके वापस पैदल आते वक़्त किसी डी.सी.ए.म वाले ने ठोक दिया था उसे। डॉ. कहते हैं दारू पीया हुआ था। कितनी बार समझाया पर सुने तब न, भगवान जाने दारू कौन बनाया। दारू के लिए मरद लोग किसी को भी दाव पर लगा सकता है। इसने तो अपनी ज़िंदगी को ही दाव पर लगा दिया। दो दिनों से न्यूरो आईसीयू में है और अभी तक बेहोश पड़ा हुआ है। “कहते हैं ऑपरेशन करना पड़ेगा मैडम, 4 लाख रुपया जमा करने को बोल रहे हैं, कहाँ से लाऊँगी मैं . . .” कहते हुए कई बार उसकी आँखें भरी थीं और ज़बान भी लड़खड़ाई थी। तभी फोन बजा था उसका और वह बग़ल हो गई थी। 

अगले दिन फिर देखा था मैंने उसे। मुझे लगा कि वह फिर मुझसे बात करेगी। अपनी कथा और वर्तमान के हालात मुझे बताएगी। मेरा हाल-चाल जानना चाहेगी। पर उसने कुछ नहीं पूछा। आँख की पपनियाँ सूजी हुई थीं। आईसीयू के सिक्युरिटी से उसने कुछ पूछा था पर उसने मना कर दिया था। आकर बैठ गई थी चुपचाप। दोनों पैरों को मोड़कर समेट लिया था कुर्सी में। कई लोग आते रहे और मिलते रहे। कभी सूखी कभी गीली आँसुओं के बीच मुस्कुराहटें भी निकलती रहीं। 

हमारे समाज की सबसे बड़ी विशेषता है कि कुछ करें या न करें पर सांत्वना देने में हम कभी पीछे नहीं रहते। छोटी-मोटी बीमारियाँ सांत्वना से ही ठीक हो जाती हैं। एक मरीज़ के पीछे पूरा ख़ानदान हमें हॉस्पिटल में नज़र आता है। ठीक उसी तरह जैसे एक को छोड़ने के लिए कई लोग स्टेशन पर इकट्ठा हो जाते हैं। जीवन के आख़िरी क्षण तक हम साथ देने में विश्वास करते हैं। यह बात अलग है कि आपसी मनमुटाव भी कम नहीं होते। दोस्त को दुश्मन बनते भी देर नहीं लगती। प्यार और नफ़रत दोनों की चरम सीमा हम देख सकते हैं यहाँ। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ज़रूरत के वक़्त दुश्मनी को हावी नहीं होने देते और मदद के लिए सामने खड़े हो जाते हैं। अपनी परवाह तो हम करते ही हैं दूसरों की ख़बर लेना भी नहीं भूलते। आज के युग में पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर और न्यूक्लीअर फ़ैमिली के नाम पर हमारे यहाँ भी लोगों की दुनियाँ सिमटने लगी है। मानसिकता ऐसी हो रही है कि दूसरों की खोज ख़बर रखने वालों को दूसरों की ज़िंदगी में टाँग अड़ाना कहा जाने लगा है। जहाँ ऐसी मानसिकता की हवा नहीं लगी है उन्हें छोटी सोसाइटी माना जाता है। शायद वह भी इस तथाकथित छोटी सोसाइटी से ही सम्बन्ध रखती थी। 

अगले दिन फिर से मेरी नज़र उसे ढूँढ़ने लगी। आईसीयू के वेटिंग एरिया से अस्पताल का मेन गेट से लेकर इमर्जेन्सी वार्ड के द्वार भी साफ़ नज़र आते थे। वहाँ बैठनेवालों के लिए दिन भर एम्बुलेंस की सायरन सुनना, मरीज़ों का उतरना और चढ़ना देखना मजबूरी सी बन जाती है। उन्हें देखकर आप स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं या बदक़िस्मत यह आपकी वर्तमान परिस्थिति पर निर्भर करता है। मस्तिष्क सकारात्मक और नकारात्मक सोचों के बीच का द्वन्द्व अनवरत झेलता रहता है। मरीज़ का स्वस्थ होकर बाहर निकलना मन में आशा और संतोष जगाता है। मेरा भी मन कुछ ऐसी ही परिस्थिति से गुज़र रहा था। वेटिंग एरिया में बैठे-बैठे मैं ढूँढ़ने लगी थी उसे हर उन मरीज़ों के साथ जो गेट से बाहर निकल रहा था। मन में सवालों का ताँता लगा हुआ था कि क्या हुआ होगा उसके पति को? क्या पैसे का जुगाड़ कर पाई वह? सर्जरी हुई उसकी या नहीं हो पाई? फिर दिमाग़ ने दिल को समझाने की कोशिश की कि अपोलो जैसे अस्पताल में जो आता है वह कुछ न कुछ जुगाड़ कर के ही आता होगा। जुगाड़ नहीं होगा तो सरकारी अस्पताल में जाएगा, यहाँ आएगा ही क्यों। मानसिक द्वंदों के बावजूद जब मन किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा तो ख़ुद्दारी को बग़ल में रखकर मैंने आईसीयू के सेक्युरिटी से पूछ ही लिया, “वो एक लेडी आईं थीं जिनके हसबैंड का एक्सीडेंट केस था और जो ऐन आई सीयू में थे, वे शिफ़्ट हो गए क्या? क्या हुआ उनका? सर्जरी हुई?” मैंने अवसर देखकर कई सवाल गाड़ दिए। 

क्षण भर के लिए सेक्युरिटी ने मुझे ऐसे देखा मानो कह रही हो, “इतनी भी क्या पड़ी है इन्हें और मुझे कोई और काम-धाम नहीं है जो सबका हिसाब रखती बैठूँ। इतने सारे पेशेंट हैं, आइसीयू भरा पड़ा है; ऐसे में किसी एक के बारे में याद रखना आसान है क्या!” परन्तु वह मुझे भी कई दिनों से चक्कर मारते हुए देख रही थी इसलिए उसे मेरे साथ कठोर होते शायद नहीं बना। उसने इतना कहा, “क्या करते जान के मैडम? एक तो हमें अलाउ ही नहीं है कि मरीज़ के बारे में किसी को बताएँ और यदि बता भी दूँ तो आपको तकलीफ़ ही होगी। नक्को पड़ो इन झंझटों में।” 

तभी एक वार्ड बॉय तेज क़दमों से हाँफते हुए आया। “बेड नम्बर 10” सेक्युरिटी को कहा। सेक्युरिटी ने झट से दरवाज़े के बग़ल वाले स्विच को दबाया और आधी खुला हुआ दरवाज़ा पूरी तरह से खुल गया। लम्बे से कॉरिडोर में लिफ़्ट से एक स्ट्रेचर उतरा। दो लड़के आगे और दो लड़के पीछे से उसे ढकेल और खींच रहे थे। एक वार्डबॉय सिरहाने की ओर से ऑक्सीजन का सिलिंडर पकड़कर पहिए के सहारे चला रहा था और एक इंसान बैलून को फुलाकर फेफड़े में हवा भरने की कोशिश कर रहा था। सफ़ेदी में लिपटा शरीर का सिर बैंडेड से पूर्णतः ढँका हुआ था। आधा चेहरा भी पट्टियों के घेरे में था। मैंने प्रयास नहीं किया उसे पहचानने का। तभी सबके पीछे हाथ में फ़ाइल का झोला लटकाए हुए वह चलती हुई दिखाई पड़ी। चेहरा मास्क के पीछे था पर आँखों में ख़ुशी साफ़ झलक रही थी। इस ख़ुशी का अंदाज़ा मैंने ऑपरेशन की क़ामयाबी से लगा लिया और मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा “थैंक गॉड!” मेरे हाव-भाव देखकर सेक्युरिटी को बर्दाश्त नहीं हुआ या वह मुझे ख़ुशफ़हमी में नहीं रखना चाह रही थी भगवान जाने। उसने धीरे से कहा, “ऑपरेशन तो हो गया मैडम लेकिन पेशेंट कोमा में है। कब बाहर निकलेगा कोई ठीक नहीं है। डॉ. साहब लोग बात कर रहे थे। कोमा का पेशेंट ज़िंदा लाश से अधिक नहीं होता आपको पता ही होगा।” मैं देखती रह गई अवाक् सी उस स्त्री को फिर से जो शराबी पति को ज़िंदा लाश के रूप में पाकर निहाल हुई जा रही थी। 

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