अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रेम कथाओं का प्लैटर: आधा इश्क़ 

समीक्षित पुस्तक: आधा इश्क़ 
लेखिका: आर्या झा
प्रकाशक: भावना प्रकाशन, दिल्ली  
पृष्ठ संख्या: 120
मूल्य: ₹160.00
ISBN-13 :  ‎ 978-8181351982
एमाज़ॉन इण्डिया से पुस्तक प्राप्त करें
 

सृजन कार्य कोई आसान कार्य नहीं है। एक पुस्तक सृजन के पीछे कई बेचैन दिन और कई अधजगी रातें होती हैं। मेरा अनुमान है कि इस पुस्तक की लेखिका आर्या झा भी कुछ इसी परिस्थिति से गुज़री होगी। उनकी अनसोई रातें और बेचैन दिन “आधा इश्क़” के रूप में साकार होकर आई है। इस कहानी संग्रह के नाम से ही अनुमान लग जाता है कि यह संग्रह प्रेमकथाओं का संग्रह है। 

प्रेम एक अनुभूति है। इस अनुभूति से अमूमन सभी लोग गुज़रते हैं। यह कुछ नहीं देखता। जात-पात, ऊँच–नीच, अमीर–ग़रीब इन सब चीज़ों से प्रेम परे है। प्रेम इंतज़ार है, जिजीविषा है, त्याग है, चाहत है। 

इस पुस्तक में प्रेम के विभिन्न रूप समाहित हैं। प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम, पति-पत्नी का प्रेम, माता-पिता का प्रेम, विभिन्न रिश्तों के बीच का प्रेम। बल्कि ये कहूँ तो कम नहीं है कि यह 18 कहानियों का संग्रह प्रेम से ओत-प्रोत है। 

अक़्सर प्रेम कथायें अधूरी रह जाती हैं। हालाँकि अब ऐसा नहीं होता। अब तो प्रेम करना मान्य है और आज अधिकतर युवा प्रेम करते हैं और उनकी कहानी पूरी भी होती है। परन्तु पहले ऐसा नहीं था। एक मध्यम परिवार के लिए प्यार करना मतलब बहुत बड़ा जुर्म करना होता था। माँ- बाप की नाक कट जाती थी। और माँ-बाप के उस नाक को बचाये रखने की ज़िम्मेदारी बेटियों की ही होती थी। 

इस कथा संग्रह की पहली कहानी “आधा इश्क़” एक अधूरे प्रेम की दास्ताँ है जिसमें कहानी की नायिका रेवा को अपने पिता की इज़्ज़त के लिए अपने प्रेम का गला घोंटना पड़ता है। वह अपनी सिंदूर तक धो डालती है। 
लेखिका कहती है, “आँखों से निकलते आँसू और माँग की लाली दोनों पानी के साथ बह गये। यही उसकी पहली हार थी। क्या होता अगर वह माँग भरी रखती! क्या होता अगर अपनी बात पर डटी रहती! शायद विरोधी शक्तिशाली न बन पाते।”(आधा इश्क़, पृष्ठ 16) 

लेखिका स्वतंत्र सोच की समर्थक है। उन्हें स्त्रियों का हार मान लेना स्वीकार्य नहीं। 

इसी कहानी में एक और जगह वह कहती हैं—ओह! लव, प्यार, इश्क़, मोहब्बत यही तो ज़िंदगी की सबसे बड़ी मुसीबत है। माँ बाप बच्चों से इतना प्यार करते हैं कि उन्हें जीने की आज़ादी नहीं दे पाते। और अगर उनकी बात न मानकर बच्चे अपनी ज़िंदगी में मशग़ूल होते हैं तो बुरी औलाद कहलाते हैं।”(आधा इश्क़, पृष्ठ 34) आधा इश्क़ कहानी में वर्तमान और अतीत का सुंदर समन्वय हुआ है जिसमें पाठक एक धारा कि तरह कहानी के साथ प्रवाहित होता रहता है। 

‘अनकही’ कहानी में भी नायिका पिता की ख़ुशी पर अपना इश्क़ क़ुर्बान कर देती ती है। पिता बेटी से वादा लेता है कि “क़सम खाओ कि सिर्फ़ पढ़ोगी और किसी तरह की दोस्ती में नहीं पड़ोगी। पापा ने अपने सिर की क़सम दी थी।” लेखिका कहती है कि “एक ही पल में जीवन दिया और जीने का हक़ छीन लिया।” ये कैसा प्यार है। (अनकही-पृष्ठ 50) 

इस संग्रह की अधिकतर कहानियाँ 90 के दशक की हैं जहाँ प्रेम और परिवार में से एक को चुनना पड़ता था। आर्या झा के कई पात्रों परिवार की बात मानकर प्रेम की बलि दी है और एक संस्कारी बेटी बनकर दिखाया है। पिता टिपिकल खलनायक है जो पुत्री को इस प्रेम के जंजाल से निकालने के लिए दो तरफ़ी बातें करते हैं। यानी पुत्री को कुछ और तथा उसके प्रेमी को कुछ और ही कहानी कहकर प्रेमी प्रेमिका के बीच ग़लतफ़हमियाँ पैदा करता है ताकि दोनों शादी न कर पायें। अंततः पुत्री अपने पिता की बात मानकर अपने प्रेम की बलि दे देती है और उनके इच्छानुसार उनके बताये हुए लड़के से शादी कर अपना कर्त्तव्य पूरी तरह निभाती है। कहानी आधा इश्क़ में भी ऐसा ही होता है। रेवा प्रेमी को छोड़कर पिता के पसंद के लड़के से शादी कर लेती है। और जीवन तमाम स्वयं को कर्त्तव्य कि वेदी में ख़ुशी ख़ुशी आहुति देती रहती है। कहानी की एक पंक्ति देखें:

“कमाल का फ़लसफ़ा है ज़िंदगी का। जिससे प्यार है उससे निभा नहीं सकते और जिससे निभाते हैं उससे प्यार से अधिक कर्त्तव्य जुड़ा होता है।” (आधा इश्क़, पृष्ठ 34) 

स्त्री क्या है? उसका अपना अस्तित्व क्या है? सिर्फ़ क़ुर्बानी देना और कर्त्तव्य की वेदी में जलते रहना? वो भी पिता, भाई और पति के कहने पर? 

स्त्री के अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रसिद्ध साहित्यकार मृदुला सिन्हा ने कहा है कि “स्त्री पति बच्चों और परिवार से कटकर अपना अस्तित्व ही नहीं समझती। उसे इन रिश्तों को जीना ही सुखकर लगता है। वह हर पल अपनी आहुति देती आह्लादित होती रहती है।” 

कहने का अर्थ यह है कि स्त्रियाँ अपने कर्त्तव्यबोध में इस तरह तल्लीन हो जाती हैं कि उसका अपना सुख या दुःख नज़र ही नहीं आता। अपने कर्त्तव्य से ही वह प्रेम कर बैठती है। 

इस कहानी संग्रह में प्रेम के विभिन्न रंग हैं। प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम तो अक़्सर हर जगह मिलता है यहाँ पति पत्नी का ऐसा अटूट प्रेम है जो पाठक को न सिर्फ़ अचंभित करता है बल्कि प्रेरित भी करता है। 

‘सदा सुहागन’ कहानी में विधवा होने के बाद भी डॉ. विदिशा स्वयं को सदा सुहागन मानती हैं और न सिर्फ़ ऐसा मानती है बल्कि सुहागिन कहलाना भी पसंद करती हैं। वह अपनी माँ से भी सदा सुहागन रहने का आशीर्वाद माँगते हुए कहती हैं, “मैं उनकी अर्द्धांगिनी उनसे पूर्ण होकर ही तुमसे आशीर्वाद माँगती हूँ।” एक विधवा माँ को सदा सुहागन रहने का आशीर्वाद देने के लिए विवश करती है। 

प्रेम तो स्त्री और पुरुष दोनों ही करते हैं। परन्तु उन दोनों के प्रेम में अंतर होता है। इस अंतर को दर्शाते हुए अनकही कहानी में लेखिका कहती हैं, “स्त्री और पुरुष की सोच यहीं तो अलग होती है। यहीं मात खा जाता है उनका प्रेम। स्त्री अपने साथी के दर्द को जीती है। उसे समा लेती है ख़ुद में। जैसे जन्मी ही हो अपने प्रिय के दर्द को वहन करने के लिए। जबकि पुरुष बस उसे ख़ुश देखना चाहता है। उनकी भीगी हुई आँखें उसे हारा हुआ महसूस कराती हैं। वह तिलमिला उठता है। वह हार बर्दाश्त नहीं कर सकता।” (अनकही-पृष्ठ 50) यही वह हार है जिससे बचने के लिये पुरुष चाँद-तारे भी तोड़ने पर आमादा हो जाता है। कभी कोई स्त्री चाँद-तारे तोड़ने की बात नहीं करती। ऐसी बातें पुरुष ही करते हैं। क्योंकि उन्हें स्त्री को ख़ुश रखना आवश्यक लगता है। स्त्री तो अपने आप को ही संपूर्ण रूप से प्रेम में समर्पण कर देने में विश्वास करती है। 

कहानी कहीं और से नहीं आती हमारे अग़ल-बग़ल में ही होती है। बस उन्हें शब्दों में बाँधने की ज़रूरत होती है। महान साहित्यकार अज्ञेय ने कहा कि “जीवन में मानव के साथ क्या घटित होता है, उसे साहित्यकार शब्दों में रचकर साहित्य की रचना करता है, अर्थात् साहित्यकार जो देखता है, अनुभव करता है उसका चिंतन करता है, विश्लेषण करता है और उसे लिख देता है। साहित्य सृजन के लिए विषयवस्तु समाज के ही विभिन्न पक्षों से ली जाती है। साहित्यकार साहित्य की रचना करते समय अपने विचारों और कल्पना को भी सम्मिलित करता है।” 

आर्य झा की कहानियाँ भी उनकी आत्मानुभूति से जुड़ी हुई हैं। यही कारण है कि ये कहानियाँ पाठकों को भावनाओं में बहाने में सक्षम हैं। 

कॉलेज का समय, दोस्तों की मस्ती, उनके क़िस्से और उन सबकी ज़िंदगी की कथा-गाथा सरल शब्दों में इस कहानी संग्रह में समेटा गया है। 
शब्दों का प्रवाह पाठक को अपने साथ बहा ले जाती है। इसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं इन कहानियों के पात्र बन जाते हैं। अपने हॉस्टल की ज़िंदगी में चले जाते हैं। अपनी फ़ेयरवेल पार्टी, ख़ुद का कॉलेज का टूर, प्रोफ़ेसर का लेक्चर आदि का मज़ा लेते हुए पाठक अपने मित्रों के साथ इन कहानियों में गोता लगाने लगता है। 

लेखिका स्वयं एक सशक्त महिला है अतः इस कहानी संग्रह की स्त्रियों को भी उन्होंने कमज़ोर नहीं होने दिया है। प्रेम में सफल हुईं या नहीं, परिवार वाले उनकी बात माने या नहीं माने, जहाँ भी गईं जिस परिस्थिति में रहीं उसमें ढलते हुए पति का और परिवार का सहारा बनीं हैं। अक़्सर पुरुष स्त्री का सहारा बनते हैं यहाँ स्त्रियाँ अपने पति का सहारा बनी है। ‘अधूरा इश्क़’ की मुख्य स्त्री पात्र रेवा पति के कंधे से कंधे नहीं मिलाती है वह पति को सहारा देती है। ‘दहेज’ कहानी में नायिका मंगनी टूटने पर अपने मंगेतर को खलनायक बताते हुए उपन्यास लिख डालती है। कहानियों की स्त्रियाँ हार न मानकर परिस्थितियों का सामना करने में विश्वास करती हैं। 

डॉ. विदिशा अपने प्रेमी पति के जाने के बाद इस तरह टूटती है कि उसके बच्चों को यहाँ तक कहना पड़ता है कि “माँ तुम भी क्यों न मर गई पापा के साथ!” परन्तु वह उठती है, सम्भालती है ख़ुद को, बच्चों को, बच्चों के साथ साथ ख़ुद की पढ़ाई भी पूरी करती है। नौकरी करती है और सभी स्त्रियों की प्रेरणा स्रोत बनती है। 

यह कहानी सत्य कथा से प्रेरित भावपूर्ण है। इसके लिए लेखिका कहती है कि “उनकी कहानी लिखने का एकमात्र उद्देश्य नारियों में सृजनात्मक शक्तियों का संचार करना है। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह सत्यकथा संपूर्ण नारी जाति के लिये प्रेरणास्पद साबित होगी।” (सदा सुहागन, पृष्ठ 48)

संग्रह की कुछ कहानियाँ बॉलीवुड की याद भी दिलाती हैं। विशेषकर ‘आध्यात्मिक प्रेम’ पढ़कर दिलवाले दुल्हनियाँ सिनेमा का नायक याद आता है जो अपनी प्रियतमा को लेकर भागता नहीं, न ही चुपके से शादी करता है बल्कि पिता का दिल जीतता है:

“रिया की माँ ख़ुश थी पर पिता के निर्णय से भिज्ञ थी। उन्होंने बस इतना ही कहा ‘बेटा वह नहीं मानेंगे।’ पर आदित्य ने बड़ी विनम्रता से कहा, आपने बेटा कहा है मुझे, बस अपना आशीर्वाद दीजिए।” (आध्यात्मिक प्रेम, पृष्ठ 85) और वह वो बनकर दिखाता है जो रिया के पिता की चाहत होती है। फिर सबकी मर्ज़ी से उससे विवाह करता है। 

प्रेम के साथ साथ कई सामाजिक समस्याएँ भी कहानियों में चलती रहती हैं। सबसे बड़ी समस्या तो दहेज़ की है जो आज भी समाज को खोखला बना रहा है। स्वाभाविक है लेखिका इसको नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई है। ‘दहेज़’ शीर्षक कहानी में अच्छा भला तय रिश्ता सिर्फ़ पैसे के लिए टूट जाता है। लेखिका कटाक्ष करते हुए कहती हैं, “ऑफ़र लेटर के पहले उसके द्वारा होनेवाली टूट-फूट के लिए दहेज़ रूपी कॉशन मनी माँग लिया जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि जितना बड़ा ख़ानदान उतना ही तगड़ा दहेज़। दोगले दोमुँहे लोग जो समाज सेवी बनने का ढोंग करते हैं। वह भी लालच में मुँह फाड़े रहते हैं।” (दहेज़, पृष्ठ 73) 
स्त्री के मनोभावों का प्राकृतिक चित्रण एक स्त्री जिस सहजता से कर सकती है वैसा कोई नहीं कर सकता। महियसी महादेवी वर्मा ने ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में लिखा है कि “पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है। परन्तु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र नारी हमें दे सकेगी वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे सके।” अतः स्त्री के बग़ैर साहित्य सृजन असंभव है। 

लेखिका आर्या झा ने अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं को अपने अनुभवों के साथ जोड़कर उसमें कल्पना का छौंक लगाकर “आधा इश्क़” कहानी संग्रह में कहानियों का प्लैटर परोसा है। 

ज़माना नया है, लोग मॉडर्न है। एक ओर जहाँ लेखिका ने अपने प्रेम के लिए स्ट्रगल करते हुए सैक्रिफ़ाइस करना दिखाया है वही दूसरी ओर तीसरी औलाद कहानी में बोल्ड और अक्खड़ लड़की का बाग़ी होकर लिविंग रिलेशनशिप में रहते हुए भी बताया है। और यहाँ माँ उसे मारती डाँटती या भगाती नहीं है बल्कि उसका साथ देती है:

“एक पल को तो दिमाग़ ही घूम गया। यह क्या कर डाला बाग़ी बिटिया ने। मगर जब घर ही छोड़ दिया था तो सवाल क्या और जवाब क्या। इस वक़्त उसे नसीहतों की नहीं बल्कि मदद की ज़रूरत थी।” (तीसरी औलाद, पृष्ठ-91) माँ उसका साथ देकर अपनी खोई हुई बेटी को पाने में सफल होती है। 

सुंदर सरल और सहज तरीक़े से 18 कहानियों के माध्यम से प्रेम के विभिन्न पहलुओं के रूप में लेखिका अपनी बात रखती गई हैं। जितनी बातें कहनी है उन्होंने उतनी ही बातें कही हैं। इधर-उधर कहीं भटकी नहीं हैं और न ही जटिल शब्दों के जाल में फँसी है। जिससे पाठक को इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। कहानियों को सुखांत बनाकर इन्होंने “अंत भला तो सब भला” वाली कहावत चरितार्थ किया है जो पाठक के मन में सकारात्मकता का बोध उत्पन्न करता है। 

विश्वास है कथा प्रेमी को यह कहानियों का प्लैटर रुचिकर अवश्य लगेगा। 

डॉ. आशा मिश्रा “मुक्ता” 
93/C, वेंगल राव नगर, 
हैदराबाद-500038। 
फ़ोन: 9908855400
ईमेल: ashamukta@gmail.com

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

Arya Jha 2023/06/24 05:20 AM

पुस्तक आधा इश्क़ की सटीक समीक्षा हेतु डॉक्टर श्रीमती आशा मिश्रा जी का हार्दिक आभार । संपादक महोदय को बहुत - बहुत धन्यवाद!

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

पुस्तक समीक्षा

कहानी

सामाजिक आलेख

लघुकथा

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं