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मैं अबला नहीं हूँ


मैं स्त्री हूँ 
मैं आन हूँ सम्मान हूँ 
मैं ममता हूँ संस्कार हूँ 
संस्कृति की धरोहर हूँ 
परंपरा निर्वाहक हूँ 
सर्जक हूँ मैं पालक हूँ 
पर टूट गई मैं 
चकनाचूर हो गई 
एक ही पल में 
मिलती रही मिट्टी में 
सिमटती रही स्वयं में 
लूटा मुझे खसोटा मुझे 
नंगा कर घसीटा मुझे 
निर्लज्जता की सीमा पार करते रहे 
बीच सड़क पर 
भेड़ियों ने 
कहते हैं इंसानियत एक फ़ितरत है 
तभी तो इंसान है 
पर ताकती रही 
मनुष्यता को 
लाखों की भीड़ में 
कि जागेगी इंसानियत 
ख़ून खौलेगा मानवता का 
प्रमाण देंगे वे 
इस धरा पर अभी भी 
अपने होने का 
इज़्ज़त बचाएँगे 
ऋषियों के देश का 
सनातन धर्म का 
पर नहीं 
देवता नहीं तो देवत्व कहाँ 
मनुष्य ही नहीं तो मानवता कहाँ 
उधेड़ी गई 
सिर्फ़ मैं नहीं 
मेरी चमड़ी नहीं 
मेरी अंतरात्मा 
 
चेतना जागेगी कभी
जागेगा देश, 
लहरायेंगे झंडे 
निकलेंगी रैलियाँ 
मिलेगा न्याय मुझे शायद एक दिन 
पर घाव जो रिस रहा है 
आत्मा में 
रिसता रहेगा 
पीप टपकता रहेगा बूँद बूँद 
जीवन पर्यंत 
मनुष्य न सही पर धरा रोती रहेगी 
 
नया कुछ नहीं है
सदियों से अपमानित होती रही हूँ 
निर्वस्त्र हुई थी 
द्रौपदी 
कौरव की सभा में 
बुलाया कृष्ण को 
बचाने लाज अपनी 
खोज रही हूँ 
मैं भी 
साथ दौड़ती भीड़ में 
एक कृष्ण, 
एक अर्जुन और एक भीम को 
चक्र गांडीव और गदा को
पर नहीं 
कोई नहीं 
ललचाई नज़रों के सिवा 
थक चुकी हूँ 
हार गई हूँ 
बचाते हुए इज़्ज़त अपनी 
सदियों से 
प्रतीक्षा में उस कृष्ण की 
जो बचाये मुझे और करे रक्षा 
अपमान का बदला ले पाये 
सदा के लिए 
 
पर नहीं 
अब नहीं 
क्यों चाहिए मुझे 
कोई कृष्ण 
कोई भीम 
कोई अर्जुन 
जगत जननी हूँ मैं 
शक्ति हूँ 
सृष्टि समाहित है मुझमें 
रक्षक हूँ 
करूँगी रक्षा 
लड़ूँगी स्वयं ही 
जैसे लड़ी थी सावित्री यमराज से 
जैसे किया सत्यानाश 
कौरव कुल का
द्रौपदी ने 
जैसे लड़ी थी लक्ष्मी बाई 
लूँगी अपमान का बदला स्वयं ही
क्योंकि मैं अबला नहीं हूँ। 

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