पुष्पक साहित्यिकी: अंक परिचय— 26-27 अप्रैल-सितंबर 2024
समीक्षा | पुस्तक चर्चा डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
पत्रिका: पुष्पक साहित्यिकी वर्ष 7 संयुक्तांक 26-27 अप्रैल-सितंबर 2024
प्रकाशक: हरिओम प्रकाशन, हैदराबाद।
मूल्य: ₹100/-
वार्षिक सदस्यता ₹300/-
आजीवन सदस्यता: ₹5000/-
पुष्पक साहित्यिकी वर्ष 7 संयुक्तांक 26-27 अप्रैल-सितंबर 2024 की शुरूआत हो रही है क़तील शिफाई के शेर से कि:
“दूर तक छाये थे बादल
और कहीं साया न था।
इस तरह बरसात का मौसम
कभी आया न था।”
पुष्पक साहित्यिकी बादल और बारिश को काटते-छाँटते सातवें वर्ष में चल रही है। प्रधान संपादक डॉ. अहिल्या मिश्र का साहित्य के प्रति समर्पण, मार्गदर्शन और ऊर्जा तथा संपादक मंडल डॉ. आशा मिश्रा, प्रवीण प्रणव एवं सह संपादक अवधेश सिन्हा का जोश और उत्साह है जिसकी वजह से यह पत्रिका पिछले 7 वर्षों से अनवरत प्रकाशित हो रही है।
मैं जहाँ तक समझती हूँ कि पढ़ना एक लत है और यह एक ऐसी लत है जिसकी चाहत हर किसी को होती है। और मुझे लगता है कि पढ़ने की लत लगाने के लिए पत्रिका एक बेहतर साधन होती है क्योंकि पत्रिका में कविता, कहानी, आलेख, समीक्षाएँ साहित्य की सारी विधाएँ मिल जाती हैं।
इससे हमारी पढ़ने की क्षुधा पूर्ति तो होती ही है साथ ही ज्ञानार्जन भी हो जाता है।
पुष्पक साहित्यिकी एक ऐसी पत्रिका है जो पढ़ने की क्षुधा पूर्ति में पूर्णरूप से सहायक है।
पत्रिका के इस अंक के संपादकीय में लोकतंत्र और स्वतंत्रता को बनाए रखने हेतु चुनाव में मतदान देकर सरकार चुनने के अधिकार एवं कर्त्तव्यों की ओर इशारा किया गया है।
हम सब जानते हैं कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक अच्छा सरकार का होना आवश्यक है। ऐसे में सरकार चुनना नागरिक का दायित्व बन जाता है। परन्तु कितने लोग इस दायित्व का निर्वाह कर पाते हैं?
चिंता व्यक्त करते हुए संपादक डॉ आशा मिश्रा ने लिखा है:
“हमारे यहाँ कुछ ऐसे प्रबुद्ध लोग भी हैं जो स्वार्थी नहीं हैं लेकिन साथ ही उन्हें न देश से कोई मतलब है न ही सरकार से और न सत्ता से। कोई भी आये कैसे भी रहें वे अपने घरों में, दफ़्तरों में संतुष्ट हैं। मतदान न उनका अधिकार है न कर्त्तव्य। इसके लिए मिली छुट्टी को वे घर में आराम कर या सैर कर बिताते हैं। वे चाहते हैं कि भारत विश्व गुरु बने लेकिन इसे बनाने योग्य नेता चुनना अपना कर्त्तव्य नहीं मानते। वे ये नहीं समझ पाते कि समाज और देश को सुधारने का दायित्व सिर्फ़ सरकार का नहीं है बल्कि देश के हर उस व्यक्ति का है जो चाहता है कि बेहतर समाज का निर्माण हो। अधिकार पाने के लिए हम आंदोलन तो करते हैं लेकिन कर्त्तव्य की बातें आते ही शुतुरमुर्ग की तरह मुँह छिपा लेते हैं।”
आगे डॉ. अहिल्या मिश्र की क़लम से लिखा हुआ चिंतन के क्षण उपकार, “अपकार एवं संहार” पायेंगे जो पाठकों को अंतर में झाँकने पर विवश करेगा।
पत्रिका के शख़्सियत कॉलम के माध्यम से प्रवीण प्रणव जी हमें हिन्दी साहित्य के जाने माने साहित्यकारों से रूबरू करवाते रहते हैं। इस अंक में जिन शख़्सियत से उन्होंने परिचय करवाया है वे “पाश” हैं जिन्होंने पंजाबी कवि होने के बावजूद उन सभी भाषाओं में प्रसिद्धि पाई जिन भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हुआ। पाश के लिए कवि नागार्जुन ने कहा था कि कि “पाश की पंक्तियों को यदि मूल पंजाबी में सुनने का सुअवसर मिलता तो हम पाश के आंतरिक ऊर्जा से अपने अंदर मृत संजीवनी की बूँदों का एहसास भरते।” उनकी क्रांतिकारी कविताओं और खालिस्तानी आंदोलनों के ख़िलाफ़ होने की वजह से कम उम्र में ही खालिस्तानियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। ऐसे कवि के समग्र जीवन का उल्लेख “हम लड़ेंगे साथी” शीर्षक के अंतर्गत आप पढ़ पायेंगे।
धरोहर श्रेणी में इस पत्रिका के माध्यम से उन रचनाकारों से परिचय करवाया जाता है जिनकी जन्म तिथि या पुण्य तिथि पत्रिका प्रकाशन अंक के महीनों में आती है।
धरोहर का मूल सूत्र है कि हम हमारे साहित्यकारों को पढ़ें न कि उन्हें धरोहर स्वरूप सहेज कर या अलमारी में सजाकर रख लें। सहेजें अवश्य परन्तु सजाने के लिए नहीं उन्हें पढ़ने के लिए और उन्हें जानने के लिए। पत्रिका के इस अंक के धरोहर हैं केदारनाथ अग्रवाल, हुल्लड़ मुरादाबादी, बेकल उत्साही, कुँवर बेचैन, भारत भूषण अग्रवाल और ख़ुमार बाराबंकवी।
इन सभी की एक-एक चुनिंदा कविता इसमें ली गई है।
उदाहरण के तौर पर बेकल उत्साही की कविता देखें:
“फिर मुझको रसख़ान बना दे”
माँ मेरे गूँगे शब्दों को
गीतों का अरमान बना दे।
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे।
देख सकें दुख-दर्द की टोली,
सुन भी सकें फ़रियाद की बोली,
माँ सारे नक़ली चेहरों पर
आँख बना दे, कान बना दे।
मेरी धरती के ख़ुदगर्ज़ों ने
टुकड़े-टुकड़े बाँट लिये हैं,
इन टुकड़ों को जोड़ के मैया
सुथरा हिन्दुस्तान बना दे
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे
“नया सवेरा” शान्ति अग्रवाल जी की कहानी है जो सदा की भाँति संवेदना से पूर्ण है।
“जीवन दृष्टि” कहानी डॉ. अमिता दुबे की है जो एक मालिकिन एवं गृहसेविका के अपनी अपनी भावनाओं को बहुत ही सरल एवं अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
पत्रिका के इस अंक में केशव शरण, वर्षा शर्मा, लक्ष्मी शर्मा, किरण सिंह, श्याम मनोहर सिरोढ़िया और चंद्रप्रकाश दायमा जी की कवितायें शामिल हैं।
दायमा जी की कविता की चंद पंक्तियाँ देखें:
“यार जयचंद हमें दुख है,
हमने उस समय
तुमको भला बुरा कहा
हमारी वजह से तुमने कितना सहा
क़ौम के प्रति तुम्हारी ग़द्दारी की,
हम नीति ही समझ नहीं पाये।
तुम दूर दृष्टि रखनेवाले राजनेता थे
तुम्हारी राजनीति ही नहीं समझ पाये।
लेकिन यार हमने बहुत बुरा कहा
तो तुमने इतना क्या बुरा मान लिया।
घृणा इतनी बढ़ा ली कि
बदला लेने की ही ठान लिया
रक्त बीज की तरह,
तुमने यहाँ अनेकों जयचंद बना डाले हैं
हमें पता ही नहीं
आज कितने साँप हमने
आस्तीन में पाले हैं।”
“कला बेवुक़ूफ़ बनाने की” एक ऐसी व्यंग्य रचना है जिसमें आपको विभिन्न प्रकार के बेवुक़ूफ़ों से पाला पड़ेगा और स्वयं की बेवुक़ूफ़ियत की श्रेणी भी आप पता कर पायेंगे।
इसके लेखक हैं डॉ. बलवीर सिंह भटनागर जो उदयपुर के हैं। रंगमंच कॉलम में डॉ. उषा रानी राव ने प्राचीन तमिल नाट्य परंपरा का लोक नाट्य “कुथू” के सम्बन्ध में लिखा है। और फ़िल्म कॉलम में दीपक कुमार दीक्षित जी का आलेख “दक्षिण के अभिनेताओं के लिए बॉलीवुड एक अभेद्य क़िला” शामिल किया हुआ है। विश्व साहित्य में सह संपादक अवधेश कुमार सिन्हा ने नोबेल पुरस्कार विजेता तुर्की उपन्यासकार ओरहान पामुक के उपन्यास “माई नेम इज़ रेड” के कुछ अंशों का हिंदी में अनुवाद किया है। जैसा कि मैंने कहा कि आप इसमें सभी विधाएँ देख सकते हैं अतः लघु कथा, कविताएँ, आलेख, निबंध, व्यंग्य, समीक्षा, यात्रा वृत्तांत आदि कई सामग्री के साथ नये प्रकाशित पुस्तकों का संक्षेप समीक्षात्मक परिचय भी इसमें आपको मिल जाएगा। यात्रा वृत्तांत में पाठक गण प्रधान संपादक के साथ कुल्लू मनाली की यात्रा का आनंद ले सकते हैं। कुल मिलाकर पत्रिका में विविध साहित्यिक व्यंजनों को एकत्रित कर पाठकों को परोसने की कोशिश की गई है। जिसे पढ़ते हुए पाठक आनंद की अनुभूति से सराबोर होंगे।
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