फागुन का दर्द!
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’1 Apr 2021 (अंक: 178, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
हे कृष्ण! फागुन फिर से आया।
शब्द मेरे प्रश्न बन
फिर जूझने तुमसे चले हैं।
कह सको गर आज,
बस इतना बताना
रंग फगुआ का क्या तुझ पर भी चढ़ा है?
नाम तेरा सुनके जब मेरे कपोल
रोज़ ही फगुआ का रंग बिखेरते हैं
तेरे गालों पर भी क्या ऐसा असर है?
तेरा फगुआ भी क्या मेरी ही तरह है?
धानी चूनर ओढ़कर फिर भोर उतरी
सतरंगी चादर बिछाने मेरे अंगना।
लाल किरणों से धरा की रेत भी
ऐसी सजी कि
तेरी सब पटरानियाँ ज्यों
लाल चूनर में सजी हैं।
पर,
साँझ जो डूबी है
गहरी वेदना में
रंग उसका क्या
ये क्या तुझको पता है?
सुनती हूँ तुमने किया आज़ाद,
और उद्धार भी उन देवियों का।
तुम ही हो उद्धारकर्ता,
लो, ये मैं भी मानती हूँ।
मेरी भी एक बात मानो
प्रेम से अपने मुझे
आज़ाद करके भी बता दो।
फगुआ की चंचल बयारें
आज भी मन मोहती होंगी तुम्हारा
जानती हूँ।
संग तेरे डोलती होंगी सभी पटरानियाँ भी
ठीक वैसे ही कि
जैसे डोलते थे संग मेरे
प्रेम रंग में डूबकर
तुम।
बिखरे लम्हों को
अगर तुम जोड़ पाओ
माप पाओ प्रेम की गहराइयों को
तो मुझे इतना बताना।
वेदना और प्रेम की गहराइयों में
भेद क्या है?
तुम हो अंतरज्ञ
यह मुझको पता है
रंग फागुन का नहीं तुमसे छिपा है।
अनगिनत पटरानियों का रंग जो तुझपर चढ़ा है।
पर ज़रा मुझको बता दो
रंग मेरे प्रेम का क्या है,
और फिर वेदना का कौन सा रंग?
हे कृष्ण!
फागुन फिर से आया
कह सको गर आज,
बस इतना बताना
तेरा फगुआ भी क्या मेरी ही तरह है?
तेरे गालों पर भी क्या मेरा असर है?
बस ज़रा इतना बताना।
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