साइकिल
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’15 Apr 2024 (अंक: 251, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
दूर सुदूर गाँव
गाँव की पगडंडी
पर सड़क है पक्की
सीमेंट की डामर की
रौंदती सड़क को
बेख़ौफ़ मोटरें
और बाईं ओर चल रहीं हैं
तीन साइकिलें
बेफ़िक्र बेपरवाह
कुछ गज़ की दूरी पर
ठीक उनके पीछे
तीन और साइकिलें
बेफ़िक्र बेपरवाह
दौड़ता है एक ट्रक
रँभाते हुए
चिल्लाते हुए
डराते हुए
सड़क के बीचों-बीच
बेख़ौफ़ हैं साइकिलें
न मुड़ती हैं पीछे
न देखतीं पलटकर
निडर सी बढ़ रही हैं
आगे और आगे
कंधे उसके सम्भाले हैं
एक भारी बस्ता
जिसमें सुगबुगा रही है
सभ्यता
कुलबुला रही है
संस्कृति
दबी रही है वह
झुकी रही है
जिस बोझ से
सदियों से
पर रुकी नहीं है
चलती रही है
डगमगाती हुई
लड़खड़ाती हुई
गाँव की पगडंडी पर
सदियों से
पर अब नहीं
निकल चुकी है वह
डर के आगे के
जीत की ओर
नहीं रुकेगी
न पलटेगी पीछे
न देखेगी मुड़कर
न फँसेगी जाल में
उन रँभाते ट्रकों के
सरसराती मोटरों के
जो रोकें उसे
फँसाएँ फिर से
और ले जाये सदियों पूर्व
उसी खंडहर में
जहाँ से निकल भागी है वह
इस साइकिल पर
सड़क के बीचों-बीच
दूर सुदूर गाँव में
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
पुस्तक समीक्षा
कहानी
सामाजिक आलेख
लघुकथा
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं