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चिता जलाना बन्द भी हो

आतंकवाद पर नित नए
अब ये राग सुनाना बन्द भी हो।
रोज़ खुदे ना कब्र नई
हर दिन चिता जलाना बन्द भी हो॥

 

जो मरते हों दहशतगर्दी से
वो ना तेरे ना मेरे हम सबके हैं,
इस शिक्षित सभ्य समाज के
वो तो सबसे निचले तबके हैं।
उनका ना खुदा ना ईश्वर ही
ना मजहब ना कोई चेहरा है,
साँसों पर उनकी फिर भी
जाने क्यॅू आतंक का ही पहरा है।
ना यहूदी सिख मुस्लिम ना
तो हिन्दू और ना ही ईसाई हैं,
स्वंय विराजे ईश्वर उनके हृदय
वो ख़ुदा की ही परछाई हैं।
नफरत की इस जलती अग्नि की
ला अब ये मंद भी हो॥

 

मौत का ख़ौफ़ ले जीते हैं जो
उनकी तो कोई पहचान नहीं,
बेबस मासूमों के हत्यारों को
करे क्षमा कभी भगवान नहीं।
ले शस्त्र हाथ जो समझ रहे
जन्नत उनको ऐसे मिल जायेगी,
नाज़िल हो आज़ाबे ख़ुदा उनपर
चींटी भी उन्हें ना खायेगी।
सौगाते मौत बाँटते दुनिया में
हो मदहोश हूरों के सपनों में,
करते स्नान प्रतिदिन प्रतिपल
दरिन्दे लाल रक्त के झरनों में।
बस मौत के सौदागर ही नहीं
किसी के तुम फरज़न्द भी हो॥

 

हम पूजें राम और अल्लाह को
पर कब माना उनका कहना,
पढ़ते रहे कुरान और गीता पर
आया क्या इंसानों सा रहना।
सोचो मन्दिर मस्जिद के झगड़ों से
क्या पाया क्या खोया है,
पूछो पाई जन्नत क्या उसने जो
अँधियारे में कब्र के सोया है।
दहशत से मिलें प्रभु गर तो क्यॅू
करते हवन यज्ञ पढ़ते नमाज़,
किस दिशा को जा रहा देखो अब
तथाकथित ये सभ्य समाज।
खून की होली मातम का मुहर्रम
हर पल मनाना बन्द भी हो

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