संस्कारों की पावन चुनर
काव्य साहित्य | कविता अवधेश कुमार मिश्र 'रजत'3 Sep 2014
संस्कारों की पावन चुनर ओढ़कर,
लाज खुद आज दुल्हन बनी है यहाँ।
रूप बगिया को यूँ सामने देखकर,
प्रियतम भँवरा जायेगा बचकर कहाँ।।
मुखड़ा पूनम के चंदा जैसा खिला,
नयन कजरारे झिलमिल सितारों से,
अधर लगते हैं जैसे नवल पुष्प हों,
काया बलखाये पवन के झँकोरों से,
वो दिशा और पथ भी महकने लगे,
करके श्रृंगार फुलवारी चलदे जहाँ।।
केश उसके हैं जैसे हो काली घटा,
हाथ कोमल हैं जैसे पुष्प डाली हो,
पाँव उसके कमल की लगे पंखुड़ी,
चाल जैसे कोई नागिन मतवाली हो,
मुस्कुराये अगर वो तो जीवन मिले,
रूठ जाये तो फिर कोई जाए कहाँ।।
वीणा के स्वर सी बोली है उसकी,
जब चले तो रुनझुन की आवाज़ हो,
किसी भक्त की जैसे भक्ति वो हो,
पाक जैसे कि कलमे की आवाज़ हो,
मरुभूमि में चरण रख दे जो अपने,
बह चले सुख की "रजत" रसधार वहाँ।।
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