घर को ही पराया मान लिया
काव्य साहित्य | कविता अवधेश कुमार मिश्र 'रजत'28 Aug 2016
सीलन क्या लगी दीवारों पर,
घर को ही पराया मान लिया।
अब बदलेंगे हालात कभी ना,
क्यों ख़ुद ये तुमने मान लिया॥
चोट लगे जो ऊँगली पर तो,
क्या गला घोंट मर जाते हैं।
सूरज के होते अस्त कभी क्या
अँधियारे से हम डर जाते हैं।
क्यों अब ऐसी बेचैनी छाई है,
क्या भविष्य सबने जान लिया॥
कुछ भटके इंसानों से डरकर,
आखिर भाग कहाँ तक पाओगे।
क्या है भरोसा जहाँ भी होगे,
सुरक्षित वहाँ तुम रह पाओगे।
किस विश्वास पर बंधु मेरे कहो
मन में ही सबकुछ ठान लिया॥
जन्मभूमि जननी से क्यों अपने,
मोह न हृदय में रहा बताओ।
घर की समस्या को मिलकर सब
घर में ही अपने सुलझाओ।
रजत ने तुमको समझ के अपना
अंतिम तुमसे ये आह्वान किया॥
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