अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

डोनेशन 

 

घर में घुसते ही अरविंद का आलाप पुनः शुरू हो गया। अरविंद सीमा के घर में उसके काम-काज में सहायता करता है। साथ ही उसका मुँहलगा भी है। सबके घर की बातें करना उसकी आदत है। सीमा इसे चाहे या न चाहे सुनना ही पड़ता है। जब से उसे एक नया काम मिला है, वह वहाँ के गुण गाता ही रहता है। ‘उस मैडम के घर में यह है, उसके घर आज अमुक चीज़ आई इत्यादि। मैडम! आप को मालूम है वो टॉवर वाली मैडम बहुत अच्छी है। कितने लोगों को ट्यूशन पढ़ाती है। बहुत पैसा कमाता है वो मैडम (उसकी हिन्दी ऐसी ही है)। उसके घर में एक-एक लोकल (अरबी) बच्चा आता है, उनके घर और वो मैडम को एक घंटे का 200-200 दिरहम दे कर जाता है।’ यह तक़रीबन रोज़ का काम हो गया। उसके रोज़-रोज़ के इस प्रशंसालाप के लिए सीमा पक-सी जाती। बस रोज़ इधर–उधर की बातें अरविंद करता। उस समय उसकी आँखों में बड़ी हसरतें दिखाई देती। सीमा थोड़ी देर के लिए ख़ुद को बौना महसूस करने लगती। 

समय बीतता गया, अरविंद की बातें भी चलती रहीं। उसे भी अरविंद की बातों में अब कुछ–कुछ रस आने लगा था। घर में प्रवेश करते ही वह टॉवर वाली मैडम का गुणगान करने लगता। यह अब रोज़ की बात हो गयी थी। सीमा भी अब उसकी बातों से परिचित-सी हो गई थी। कभी कभार उसे स्वयं छेड़ देती कि आज क्या हुआ? 

एक दिन अरविंद ने बताया, “मैडम, गाँव में मेरे पिताजी एक शिव मंदिर बनवाने जा रहे हैं। आप कुछ डोनेशन देगा क्या?”

मैंने कहा, “क्यों नहीं! ज़रूर।”

उस दिन उसके जाते समय सीमा ने 50 दिरहम (करीब 1000 भारतीय रुपए) उसे पकड़ाए तो उसके चेहरे के भाव से ऐसा लगा कि वो ख़ुश नहीं है। पैसे लेकर वो बताने लगा, “वो टॉवर वाली मैडम भी डोनेशन देगी।” उसके स्वर में उत्साह का भाव था। उसे टॉवर वाली मैडम से बहुत आशा थी। उसका उत्साह देखकर सीमा को थोड़ी हीनता का अहसास हुआ। 

अगले दिन जैसे ही अरविंद घर में घुसा। वह बहुत ही ग़ुस्से में था। बाद में पता लगा कि आज टॉवर वाली मैडम ने उसे डोनेशन के पैसे दिए थे, उसी को लेकर वह काफ़ी ग़ुस्से में था। वह बड़बड़ा रहा था कि बड़ा लोगों का दिल नहीं होता है। वो बड़े कंजूस होते हैं, निर्दयी होते हैं। उन्हें धर्म और समाज की कोई चिंता नहीं होती। काफ़ी समय बाद पता चला कि टॉवर वाली मैडम ने उसे भारतीय मुद्रा में 25 रुपए डोनेशन में दिए थे। 

सीमा क्या कहती, बस उसका मुँह देखती रही। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं