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हे! श्रमवीरो तुम्हें नमन

 

(मई दिवस विशेष)

जो धरती की माटी लेकर
माथे तिलक लगाता है। 
जो भवनों से राजपथों तक
श्रम के गीत सुनाता है। 
जिसके भीतर जलती रहती
सूरज जैसे कोई अगन। 
हे। मज़दूरो तुम्हें नमन
हे! श्रमवीरो तुम्हें नमन॥
 
जिसका स्वेद गिरे धरा पर
वो चंदन बन जाता है। 
चट्टानों को काट-काट जो
गीत विजय के गाता है। 
संघर्षों में तप कर, भी जो
ज़िन्दा भीतर रखे लगन। 
हे! मज़दूरो तुम्हें नमन 
हे! श्रमवीरो तुम्हें नमन॥
 
जो माटी को सींच रहे हैं
अपने ख़ून पसीने से। 
और सँवरती, धरती अपनी 
श्रम के इसी नगीने से। 
जैसे बहता कोई नीर हो 
उतना निर्मल जिसका मन
हे! मजदूरो तुम्हें नमन
हे! श्रमवीरों तुम्हें नमन॥
 
जो रहते हैं बुनियादों में 
चकाचौंध से कोसों दूर 
अपना केवल फ़र्ज़ निभाते
श्रम में जीने वाले शूर
देश के ख़ातिर ढला हुआ है
जिनका है फौलाद बदन।
हे! मज़दूरो तुम्हें नमन
हे! श्रमवीरों तुम्हें नमन॥
 
जिनका पूरा जीवन अर्पित
राष्ट्र के निर्माणों में 
आँखों में सपने भी पलते
मेहनत जिनके प्राणो में
ये माटी के सच्चे सेवक 
जो रखते ख़ुशहाल वतन
हे! मज़दूरो तुम्हें नमन 
हे! श्रमवीरो तुम्हें नमन॥

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