हिमपात
काव्य साहित्य | कविता अनिलप्रभा कुमार4 Oct 2006
(प्रेम के विभिन्न धरातल)
उमर अपना अल्हड़ आँचल
माथे पर साध कर,
बड़ी शालीनता से
कुछ यूँ खड़ी हो जाती है
हालातों के घुमाव पर,
कि हम
जो घंटों निहारा करते थे
बिजली के खम्बे पर
बरसती बौछार को,
खन-खन
हज़ारों मोतियों में टूटती
बिखरती लड़ियों को।
अब भी, उतारते हैं
आँखों से आत्मा तक,
दूर-दूर तक फैली
बर्फ़ीली सफ़ेदी का विस्तार।
सब कुछ श्वेत,
सूफ़ी संतों के रहस्यवाद सा
मैं तुम-मय और तुम मुझ-मय,
एक ही सफ़ेद रंग में लीन!
फिर अचानक कोई
अपने क़दमों से
रौंद कर चला जाता है,
उस उजली निस्तब्धता का कोरापन।
झटके से उठ कर,
एक गहरी साँस लेकर
सोचते हैं अब हम,
ऐसे मौसम में
घर कैसे लौटोगे तुम?
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