साक्षात्कार
काव्य साहित्य | कविता अनिलप्रभा कुमार4 Oct 2006
(प्रेम के विभिन्न धरातल)
यूँ तो हर पल प्रतीक्षा की थी मैंने
जीवन के हर मोड़ पर
अचानक तुमसे साक्षात्कार होने की।
फिर वही, जब सच हुआ,
दोनों को मूक कर गया,
न धड़कनें बढ़ीं
न यादें ही तिरीं
उम्र की रेखाएँ पढ़ते रहे
एक दूसरे के चेहरे पर।
सब्ज़ी का झोला मेरे हाथ में
बच्चा तुम्हारे साथ में,
और
हम दोनों के बीच में
एक ख़ामोश इतिहास।
कैसी हैं अ-आप?
ठीक हूँ
बहुत असहज होकर तुमने कहा,
बच्चे को थपथपा कर,
संकुचित सी मुस्कराहट
और फिर विदा लेकर
लौट आए,
हम अपने-अपने वर्तमान पर।
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