इस पार - उस पार
काव्य साहित्य | कविता डॉ. गुलाम मुर्त्तज़ा शरीफ़3 May 2012
इस पार मधु है, बाला है,
उस पार का अल्ला हाफ़िज़ है,
इस पार को जन्नत समझे हो,
उस पार जहन्नुम हाज़िर है।
इस पार सुरा, सुर है, वोह है,
उस पर अकेले जाना है,
इस पार की अपनी फ़सलों को,
उस पार ही पाना, खाना है।
इस पार माँ के क़दमों तले,
उस पार की जन्नत रहती है,
उस पार की जन्नत पाने को,
इस पार की जन्नत पाना है।
इस पार की पावन धरती में,
उस पार की खुश्बू बसती है,
उस पार की खुश्बू पाने को,
इस पार की मिट्टी पाना है।
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