इस्पात के जंगल हैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रभाकर शुक्ल15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
इस्पात के जंगल हैं
कंकरीट की गुफाएँ
गौरैया फड़फड़ाए
इंसान कहाँ जाये
गमलों में सिमट जाती है
प्रकृति की हरितिमा
अब फूल के घरों में
कैक्टस है मुस्कुराये
सब सूख रहीं नदियाँ
भूतल में नहीं पानी
बरसात अगर ना हो
पानी कहाँ से आये
वो धूप बारजे की
अब कल्पनाओं में है
ख़ैरात सी बँटेंगी
रौशनी की दुआएँ
शीशे में मछलियाँ है
दरबे में आदमी है
कितनी बदल गयी है
जीने की अब अदाएँ।
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