जुगनू की दस्तक
काव्य साहित्य | कविता डॉ. चन्द्र त्रिखा1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
नफ़रत की अंधी गुफाओं में
कई बार काफ़ी होती है
एक जुगनू की भी दस्तक
संभावनाओं की पतवारें
चलाते रहो साथियो!
किनारे आख़िर नज़रों से
बच नहीं पायेंगे
कितनी ही असीम हो
यह काली नदी
पर सीमाओं की मौजूदगी को
नकार तो नहीं पाएगी
बस इन्हीं सीमाओं के आसपास
मौजूद हैं हरे-भरे जंगल
जहाँ प्रदूषण का
कहीं दूर तक नाम नहीं है
आइए करें कामना
साहित्य के अलाव की गर्मी से
अंकुरित हो नयी पौध।
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