काली नदी
काव्य साहित्य | कविता डॉ. चन्द्र त्रिखा1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
अनगिनत मासूम लोगों के शवों पर
ज़िन्दगी को हादसे की शक्ल देकर
नाखूनों को मांसपेशी से झटक कर
साँस को संवेदनाओं से अलग कर
किस तरह काली नदी के
इन मुहानों पर
कोई भी घर बनेगा–
ज़िंदगी बंदूक की गोली नहीं है
ज़िंदगी आतंक का दर्पण नहीं है
ज़िंदगी मासूम-से
उड़ते परिंदे की रगों में क़ैद धड़कन है
जानता हूँ जब तुम्हारा
हो गया आकाश छोटा
अब सियासत की गुलेलें भी
तुम्हारे हाथ में हैं
याद रखो! इन रगों में
क़ैद धड़कन रुक गयी तो
रोशनी, आकाश, पानी
और इस काली नदी के
इन मुहानों पर बना भूगोल
सब कुछ,
ढाँप लेंगे इस शहर को
जिस शहर में
सिर्फ़ कल की बात है
भंगड़े पड़े थे
और गिद्धा, बोलियाँ डाली गईं थीं
कौन-सी पहचान
तुम आख़िर बनाना चाहते हो
गोलियों के शोर में तुम
किस तरह सिमरन करोगे
चार दूकानें जलाकर
आग की इस रोशनी में
कौन-सी गीता सुनोगे
कान बहरे हो चुके हैं
दोस्त! अब परदा गिराओ
हो सके, तो वक़्त है
अब भी घरों को लौट जाओ
और फिर साँकल चढ़ाकर
आइनों के सामने
कोशिश करो, ख़ुद को ज़रा पहचानने की
और देखो किस तरह की
जंगली तहज़ीब चेहरे पर उगी है
किस क़दर ख़ुद को
पराए लग रहे हो
यूँ सभी कुछ चल रहा है
छप रहीं हैं ख़बरें, धड़ल्ले से
सभी अख़बार में डूबे हुए हैं
मगर अब सब सुर्ख़ियाँ मद्धम
अब कहीं दो-चार मर भी जाएँ तो
कोई कहीं पर अब
नहीं है चौंक पड़ता
आज जब हत्याएँ अपनी
रोज़मर्रा ज़िंदगी का सहज हिस्सा बन चली हैं
गुलशनों की
ख़ुशबुओं की, सुरमई शामों, गुनगुनी धूप की बातें करेंगे
इसलिए, बस इसलिए
ऐ दोस्त! अब परदा गिराओ।
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Kailash Ahluwalia 2021/11/06 01:42 PM
Kali nadi. Bahut sunder or khatarnaak muhane par khade manav ko insaniyat ka bodh karvati. Bahut dinon ke baad ek sunder kavita.