शब्द-जंगल
काव्य साहित्य | कविता डॉ. चन्द्र त्रिखा1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
हर रात एक मुर्दा
पास वाली खाट पर
दबे पाँव चुपके-चुपके
आकर लेट जाता है
सहमता हूँ
चौंकता हूँ
पहचानने का यत्न करता हूँ
और मुर्दा बोलता है
मत डरो! मैं तुम्हारा प्यार हूँ
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