जूते
काव्य साहित्य | कविता अशोक गुप्ता1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
तुमने उन्हें कूड़ेदान में फेंक दिया
मैं उन्हें उठा लाया
और धैर्य से
इंतज़ार करने लगा
मोची के आने का
लकड़ी के बक्से में
टायर के टुकड़ों के साथ
मैंने कहा
नहीं बीस नहीं दस
तुम हँसी
और बोलीं
“कंजूस!”
अब तो सालों बीत गए
और तब के मरम्मत किये जूते
घिसे किनारे और
सफ़ेद हुई नोक लिए
मेरी ओर देखते हैं
टायर का तलवा
अब भी मज़बूती से
जुड़ा हुआ है
मैं तुम्हें बताता हूँ
की वो जूता
जो तुमने फेंक दिया था
मैं अब भी पहन रहा हूँ
तुम अतीत से निकल कर
कहती हो “कंजूस!”
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