कालकोठरी से अमरता तक
काव्य साहित्य | कविता प्रतीक झा ‘ओप्पी’15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
मेरा शरीर भले क़ैद है
देश-काल के बंधनों में
पर मेरा विचार
उड़ चला है
उन्हीं क़िलों के तहख़ानों में
और जेल की उन्हीं कालकोठरियों में—
जहाँ
त्याग, संघर्ष और वीरता
ने लिया था जन्म।
मैंने देखा है
मुग़लों का आतंक
अंग्रेज़ों की क्रूरता—
तभी तो मेरे विचार
नहीं बाँध पाती
देश-काल की कोई भी ज़ंजीर।
वे पहुँच जाते हैं
उन्हीं क्षणों में, उन्हीं स्थलों पर
जहाँ
भारत के वीर सपूतों ने
अपने बलिदान, त्याग और पराक्रम से
रच डाली
इतिहास की अमर गाथा।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं