खंडहर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अरुणा घवाना26 Dec 2007
खंडहर हुई वो आलीशान दीवारें
दीवारों के आँसू तो सब
झरझराते देख जाते हैं
इमारत से क्या कभी किसी ने पूछा,
मैं, इमारत से पूछ बैठा
मेरे भावुक शब्दों को सुन
वो रो पड़ी,
कांधे पर सिर रख
बोल पड़ी
कभी शान थी मैं
यहाँ के लोगों का ईमान थी
पर अब
अब तो शहर में
ईमान किसका बचा है
फिर कांधे से सिर उठाकर
साए सी वहीं बैठ विलीन हो गई
तब मुझे नींव का ख़्याल आया
मैं मुड़ा, नीचे झाँका
देखा नींव की आँखें नम थीं
पर अब भी दर्प था उनमें
बोली,
उम्मीद है
इस खंडहर की अब
और दिन नींव नहीं रहूँगी
किसी ख़ूबसूरत इमारत की
गवाह बनूँगी और दूँगी उसे आसरा
कह,
वह मस्ती से खिसक गई
मेरी हस्ती मिटा गई
मैं अब तक किस इतिहास में जीता रहा,
आज इतिहास की ही नींव
मुझसे बहुत कुछ कह गई।
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