खेल
काव्य साहित्य | कविता हेमंत कुमार मेहरा15 Jul 2020 (अंक: 160, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
उसे हँसने की आदत थी,
थी आदत मुस्कुराने की,
यही तो फ़न था उसका,
था यही तो एक हुनर उसका,
मैं था शायर,
अमीरी थी उदासी की,
मुझे था लुत्फ़ रोने में,
यही तो फ़न था मेरा,
मेरे सब शेर गुमसुम थे,
पले थे, मुफ़लिसी में जो,
हँसी थी उसकी बातें और,
मुझे बस लत थी रोने की।
मुहब्बत किसको कहते हैं?
समझ कुछ भी नहीं आता,
मगर,
मगर, हँसने लगा हूँ मैं,
लगी है और वो रोने में,
बड़ा उलझा हुआ ये खेल है,
ये खेल अदला-बदली का।
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