यही तो दुनिया है साहब
काव्य साहित्य | कविता हेमंत कुमार मेहरा1 Dec 2019 (अंक: 145, प्रथम, 2019 में प्रकाशित)
यही तो दुनिया है साहब,
हर कोई पैसों का मारा,
हर एक ख़ुद से ही हारा,
यही तो दुनिया है साहब!
ये न सतयुग है, न द्वापर है,
ये कलयुग है, ये कल. . .युग है. . .
यहाँ प्यार नहीं, कोई यार नहीं,
रिश्ते, नाते, व्यवहार नहीं,
सब अपनी अपनी कहते हैं,
सब अपनी अपनी करते हैं,
इंसान नहीं,
हैवान हैं सब,
सब तन्हा हैं. . .सब तन्हा हैं. . .
बेकार का रोना रोते हैं,
बेकाम की बातें करते हैं,
ज़िंदा हैं, पर मुर्दा हैं,
मरने के लिए ही जीते हैं,
और जीते जीते मरते हैं. . .
यही तो दुनिया है साहब. . .!
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