कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
काव्य साहित्य | कविता डॉ. रचना शर्मा15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मैं रूठी हूँ या ख़ुद ही मान जाऊँ
किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है . . .
मेरे दिल के जज़्बातों से, अच्छे व्यवहार से 
मन की बातों से, अपने तमाम भीतर के जज़्बातों से, 
किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता . . .
 
बुझ सी गई है ज़िन्दगी अपने ग़मों को लेकर, 
अपने ही एहसास पल भर के लिए चुभते जाते हैं, 
मेरी सादगी का उन पर कोई एहसास नहीं होता, 
मन की बातें मन में ही रह जाती है, 
अंत में नतीजा मुझे नीचे झुकाने का ही निकलता है, 
पता नहीं क्यों किसी को क्यों नहीं फ़र्क़ पड़ता . . .?
 
मैं किसी के लिए कितना भी कुछ कर लूँ 
आख़िर मेरे दिल को ठेस लगाई जाती है 
मेरे दिल के टुकड़े बार-बार बिखर जाते हैं 
लेकिन किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता . . . 
 
मैं रूठी हूँ या नहीं मेरे लिए ख़ुद से ही मान जाना
किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता . . .।
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Gurvinder Singh 2024/12/24 09:56 AM
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