महाठगबंधन
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता डॉ. शैलेश शुक्ला15 Mar 2024 (अंक: 249, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
कभी गरियाते हैं,
तो कभी गले लगाते हैं
निज लाभ लोभ में
एक-दूजे को सहलाते हैं
एक पूरब एक पश्चिम,
एक उत्तर एक दक्षिण
देखो सब मिलकर अब
क्या-क्या गुल खिलाते हैं।
जनता को सदा छलते रहे
हक़ उनका ये निगलते रहे
विचारधारा मिले या न मिले
ये तेल में पानी मिलाते हैं।
करके वादा दिए के साथ का
हवा के साथ हो जाते हैं
अपने हित को नारों में
सदा जनहित ये बताते हैं।
एक-दूसरे को हमेशा ही
मौक़ा मिलते ही नोचते रहे
देख शेर सामने अपने
गीदड़-गीदड़ मिल जाते हैं।
न कोई किसी की बहन
न कोई किसी का भैया
सबको बचानी है कैसे भी
अपनी-अपनी डूबती नैया
नक़ली वादे, नक़ली दावे
नक़ली इनके सब नारे हैं
लोकतंत्र का मज़ाक़ उड़ाते
ये लोकतंत्र के हत्यारे हैं।
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