मैं जा रहा हूँ
काव्य साहित्य | कविता कमल कुमार1 Apr 2025 (अंक: 274, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मैं पहाड़ जा रहा हूँ
उनसे मिलने, जिन्होंने
ज़िंदा रखी हैं
पुरखों की छप्पर
आज़ाद परिंदों की कूक
और
देवता की ओट!
मुझे मिलना है
पत्थरों को गोद में तराशती
पूरे वेग से बहती
आवेशित नदियों से
मुझे,
छोटी डंडियों के सहारे
बौने क़दम रखती
पहाड़ चढ़ती
बड़ी औरतों से मिलना है
मैं,
सबसे बुज़ुर्ग देवदार से
गाँव की सबसे सुंदर
प्रेम कथा सुनना चाहता हूँ
मैं,
जा रहा हूँ
तलहटियों से लेकर तमाम चिट्ठियाँ
चोटियों तक
सही-सलामत पहुँचाने को
मैं लोकगीतों को
अपने सितार की धुन पर
फिर से ज़िन्दा करने
प्रेम पाने,
अठखेलियाँ करने,
और
कभी लौट न आने को
पहाड़ जा रहा हूँ।
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