अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं लिखना चाहती हूँ

मैं लिखना चाहती हूँ
आँसुओं की भाषा 
आँसुओं की भाषा का भाषाई अनुवाद हो सकेगा . . .? 
विरह की छाती पर बैठ सकती है मुस्कान . . .? 
 
मैं पानी पर लिखना चाहती हूँ 
उसकी लिपि प्यास से
मैं रोटी पर लिखना चाहती हूँ भूख
क्या हो सकेगा अनुवाद भूख का . . .? 
 
मैं लिखना चाहती हूँ 
कटिया के बाद खेतों में गिरे एक-एक गेहूँ को
जो मुझे फ़ुटपाथ पर बैठे एक-एक पेट लगते हैं
भूख से तड़पते हुए
और तब लगता है ब्रह्मांड से बड़ा है एक पेट . . .
 
मैं लोलुप अंधों की सत्ता में करना चाहती हूँ सूराख क़लम से 
मैं कविता में सर्वहारा वर्ग को लाना चाहती हूँ 
मैं लिखना चाहती हूँ सोहनी करती हुई गाँव के हर स्त्री के पसीने को
क्या पसीने का कोई अनुवाद हो सकेगा . . .? 
 
मैं लिखना चाहती हूँ मेढक के छपाक को
उसके टर्र टर्र को
उस गँवई जीवन को
जहाँ साँझ झींगुर के झंकार से झंकृत हो उठती है
 
जहाँ साँझ आँगन में चारपाई पर लेटा किसान
आकाश के तारे देख कहता है
वो देखो आसमान में भूजा छींट दिया गया है
 
मैं लिखना चाहती हूँ कविता में गँवई शब्दावली भी
गोबर भी, गोंइंठा (उपला) भी
बाग़ बग़ीचा भी
उसमें पड़े झूले भी 
मिट्टी से सने ओक्का-बोक्का खेलते बच्चे भी
क्या ओक्का-बोक्का का कोई अनुवाद हो सकेगा? 
 
भोर होते ही खुरपी लिए खेत जाते किसान
मुझे उनके हाथ में लटकती खुरपी नहीं दिखाई देती
दिखाई देती है खुरपी पर लटकती भूख . . .। 
 
खुरपी, हँसुआ, कुदाल और पसीना
किसान के महाकाव्य हैं
जिसपर लिखा जाता है उनका पूरा जीवन॥
 
मुझे गाँव भारत की आत्मा लगते हैं
मैं लिखना चाहती हूँ आत्मा की पीड़ा को
एक किसान अपनी उम्मीद खोमचे में रखता है
और मुस्कान गुल्लक में . . . 
अपनी भूख को ताखे पर रख सो जाता है
अपने बच्चों की ख़ातिर . . . 
मैंं लिखना चाहती हूँ वही ताखे पर रखी गई भूख . . .
 
मैं लिखना चाहती हूँ
अँधेरे के माथे पर प्रकाश का हस्ताक्षर करती
ढिबरी की उस लौ को . . .
हाँ मैं लिखना चाहती हूँ
टाटी को, मड़ई को, छप्पर को . . . 
मैंं चाहती हूँ मेरी क़लम पहुँचे
दुनिया की अंतिम सम्भावना तक . . .
 
मैं लिखना चाहती हूँ
उन बूढ़ी आँखों को
जिनकी नमी सूख गयी है
जिनकी आँखों का इंतज़ार बौना पड़ गया है
जिनके शहर गए बच्चे भूल चुके हैं
मिट्टी, गाँव और माई को . . .
 
मैं लिखना चाहती हूँ 
एक रिक्शेवाले के जीवन को 
कैसे टिका होता है उसका जीवन तीन पहिए पर
त्रिविक्रम के पैरों की तरह
ये तीन पहिया नाप लेता है उसका पूरा जीवन
और गढ़ देता है भविष्य भारत का . . . 
रिक्शे का कोई अनुवाद हो सकेगा . . .? 
 
मेरी क़लम में नहीं भरी है सिर्फ़ नीली स्याही
आँसू है . . . मुस्कान है . . . दर्द है . . . तड़प है
अनगिनत स्याही से भरी क़लम का
क्या कोई अनुवाद हो सकेगा . . .? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

रचना समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं