मुसलसल ज़िन्दा रहने का
शायरी | नज़्म अमितोष मिश्रा3 Mar 2009
मुसलसल ज़िंन्दा रहने का मुझे बड़ा तजुर्बा है।
अब भी चल रही है साँसें, ये कैसा अजूबा है॥
मैं जब भी जहाँ भी गया मेरे साथ ही रही।
ज़माने भर से बेहतर तन्हाई, मेरी महबूबा है॥
आज फिर याद तेरी आई और आदतन अश्क बह चले।
लगता है फिर आज समंदर में, कोई जहाज़ डूबा है॥
सारी क़ायनात तो ख़ुदा और उसके बन्दों की है।
फ़क़त हिंदू या मुस्लिम की हो, ये किसका मंसूबा है॥
समझ में आता नहीं ये दौर-ए-तरक़्क़ी का।
ख़ुद में ही उलझा हर कोई, ख़ुद से ही ऊबा है॥
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