नक़ल
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी संजय माथुर15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
भइया को गणित से नफ़रत थी। ये जन्मजात थी या धीरे-धीरे विकसित हुई, इस पर भइया भी ढुलमुल रवैया रखते थे। कभी कहते—‘हमको कब्बो नहीं बुझाईल’, कभी कहते-‘पहले तो बुझाईल फिर एकदम्मे गड़बड़ाईल’। मगर लब्बो-लुआब ये कि अब स्थिति गड़बड़ाईल वाली ही चल रही थी।
ये स्थिति घर के पिता को दुख में देवदास और क्रोध में दुर्वासा बनाने के लिये पर्याप्त थी। जब वो दुःख में होते तो ‘इसका क्या होगा’ उनको खाता रहता और जब दुर्वासा होते तो उनका ‘पूरे घर में आग लगा देने का’ जज़्बा उबाल मारता रहता। अमूमन काम से लौटकर वह घर में घुसते ही दुर्वासा हो जाते। उनके घर में घुसने और भइया के घर से ग़ायब होने की टाइमिंग आज तक ग़लत नहीं हुई थी। भइया की लाज, जान और शरीर को बचाने की ज़िम्मेदारी घर की माँ और बहनों की थी।
भइया जब दूसरी बार भी बोर्ड की परीक्षा में लुढ़क गए तो घर के पिता के सब्र का बाँध टूट गया। कहा जाता है कि जब नदी का बाँध टूटता है तो पानी की बाढ़ आती है मगर जब सब्र का बाँध टूटता है तो गालियों की बाढ़ आती है। उस दिन इलाक़े भर में गालियों की बाढ़ आ गई। पिताजी ने भइया को वो-वो गालियाँ सुनाई, वो-वो गालियाँ सुनाई और इतना दहाड़-दहाड़ कर सुनाई कि मुहल्ले की ज़्यादातर घरों की माँओं को अपनी–अपनी जवान होती लड़कियों के कानों में रूई के बंडल ठूँसने पड़े। आस-पास के बहुत से व्यवहार कुशल लोगों ने उन गालियों को कंठस्थ कर लिया। वे जानते थे कि इस देश में अगर सम्मानपूर्वक ज़िन्दा रहना है तो प्रभावशाली गालियों का स्टॉक दिल दिमाग़ में हमेशा भरा रहना चाहिये। पता नहीं किस क्षण इस्तेमाल करने की नौबत आ जाए और आपके पास नया मारक क्षमता से लैस स्टॉक ही न हो।
उस रात भइया जब दबे पाँव चुपके से घर में ये सोचकर घुसे कि अब तक पिताजी थक-हार कर सो चुके होंगे तो उन्हें 11 हज़ार वोल्ट का झटका लगा। पिताजी जग ही नहीं रहे थे बल्कि हाथ पीछे बाँध और जबड़ा भींच कर सधे क़दमों से टहल रहे थे। ये भाव-भंगिमा और घनघोर सन्नाटे में उनके टहलने से पैदा हुई अजब सनसनाती आवाज़ माहौल में भय पैदा कर रही थी। माँ-बहनें अनहोनी की आशंका से सहमी, आस-पास ही दुबकी हुई, बेख़बर बने रहने का अटपटा अभिनय कर रहीं थीं। कहना न होगा कि वह रात परिवार के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हुई और वर्तमान और आने वाली तमाम पीढ़ियों की नसों में वर्षों तक सिहरन पैदा करने की ख़ुराक बनी। उस रात पिताजी ने अपने प्रदर्शन से दुर्वासा को बुरी तरह पराजित किया था।
इस तमाम उठा-पटक के बाद भी मूल प्रश्न वहीं का वहीं डटा हुआ था, अब भइया का क्या हो? पिताजी ने कई विकल्पों पर विचार किया। सबसे सस्ता, सुंदर और टिकाऊ विकल्प था ज़हर देकर भइया को मार देना और अपनी इहलीला भी तेल छिड़ककर समाप्त कर लेना। इस विकल्प को सुनते ही कमज़ोर-सी दिखने वाली घर की माँ फुंफकार उठी। उसने पहली बार घर के पिता को आड़े हाथों लेते हुए कई अकाट्य तर्क प्रस्तुत किये। पहला—भइया, इतनी बहनों के बीच ख़ानदान के अकेले चिराग़ हैं, इकलौते वारिस हैं, वंश का रथ चलाने वाले सारथी हैं, इसलिये उनको ख़त्म करने से पहले पूरे परिवार को ज़हर देना होगा। दूसरा—क्या इस देश के हर आदमी ने बोर्ड की परीक्षा पास कर ली है। अगर नहीं की है तो भइया के ही न करने से कौन सा आसमान टूट जाएगा?
घर की माँ ने इस अप्रत्याक्षित हमले से घर के पिता को घुटनों पर ला दिया और अन्य विकल्पों पर विचार करने के लिये मजबूर कर दिया। घर के पिताजी व्यवहारिक व्यक्ति थे। वे जानते थे कि भइया को इस देश में जीवित रहने के लिये अभी तरह-तरह की मंडियों की चौखट पर माथा रगड़ना है और उन मंडियों का दरवाज़ा खुलवाने में पास की हुई बोर्ड परीक्षा का सर्टिफ़िकेट चाभी रूपी एक प्रारम्भिक हथियार है। इसलिये उन्होंने अपने सोचे अन्य विकल्पों पर गंभीरता से पुनर्विचार किया।
अन्य विकल्पों पर विचार शुरू होते ही नक़ल, उत्तर पुस्तिका का बदलना, मास्टर को ख़रीदना, सुविधा शुल्क, सैटिंग, सॉल्वर गैंग जैसे शब्द अपने पूरे गाजे-बाजे के साथ घर में घुस पड़े और होने वाली हर चर्चा की धुरि बन गये।
इस सारी रणनीति को अगली परीक्षा शुरू होने से पहले ही अन्तिम रूप दिया जाना था। इसलिये समय कम था और काम बहुत ज़्यादा। काम पर तेज़ी से जुटना मजबूरी थी। भइया यानी इकलौते चिराग़ की ख़ातिर पिताजी ने ‘बिना पढ़े पास कराने वाले विशेषज्ञों’ से जैसे ही मिलना-जुलना शुरू किया तो उन्हें पता चला कि इस क्षेत्र में तो इतना विकास हो चुका है, इतना विकास हो चुका है कि देश इस क्षेत्र में विश्व का अग्रज होने का सम्मान आसानी से पा सकता है। उन्हें ये भी पता चला कि ये क्षेत्र शीघ्र ही संगठित क्षेत्र का हिस्सा बन सकता है। इससे जुड़े मानवश्रम को प्रोविडेन्ट फ़ंड, पेंशन आदि देने पर विचार चल रहा है और ये क्षेत्र तेज़ गति से यानी लगभग नौ दशमलव तीन प्रतिशत की सालाना विकास दर से आगे बढ़ रहा है। ये सब जान कर पिताजी के ज्ञान चक्षु खुल गये। उन्होंने माता-रानी को बारम्बर प्रणाम किया कि अच्छा हुआ भइया लुढ़के वरना देश में मौजूद ज्ञान का ये ख़ज़ाना उनके हाथ कैसे लगता?
विशेषज्ञों ने अपने ग्राहकों की सुविधा के लिए आकर्षक पैकेज बना रखे थे। ये पिताजी को तब पता चला जब वे विशेषज्ञों के भव्य कार्यालय में पहली बार घुसे। कार्यालय के वातानुकूलित माहौल ने पिताजी के पसीने-पसीने शरीर को फूल की कोमल पंखुड़ी के नर्म स्पर्श जैसा सुरसुराया। सामने बैठी एक मोहिनी बाला ने मुस्कुराकर उनका स्वागत किया। आदर से सोफ़े पर बैठाया। सोफ़ा इतना गुदगुदा था कि पिताजी आधे उसमें धँस गये। इससे पहले कि वह अपन धँसे शरीर को सुव्यवस्थित करते, एक शीतल पेय से भरा गिलास उनके सामने पेश हुआ जिसमें नाच रहे छोटे-छोटे बुलबुले अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। विशेषज्ञों के इस अपनत्व ने पिताजी को मक्खन की तरह पिघला दिया। अब उस मोहिनी बाला ने मुस्कुराकर उनके आने का कारण पूछा तो पिताजी ने एक साँस में उसके सामने भइया कथा बाँच दी। बाला ने बताया कि ऐसी समस्याओं को तो उसका संस्थान चुटकियों में हल कर देता है। तब पिताजी को उसने वह रंगीन और चिकना फ़ोल्डर उपलब्ध कराया जिसमें समस्या समाधान के आकर्षक पैकेज अपनी छटा बिखेर रहे थे। पिताजी ने फ़ोल्डर को उलटना-पलटना शुरू किया। कई पैकेज मौजूद थे। उनमें बायीं ओर दी जाने वाली सुविधाओं का उल्लेख था और दाहिनी ओर पैकेज का सुविधा शुल्क दर्ज था।
बाला मन-मस्तिष्क पढ़ने की उस्ताद थी। उसने जान लिया कि पिताजी कुछ डगमगा रहे हैं, समझ नहीं पा रहे हैं। उसने पिताजी को एक अन्य कमरे में पहुँचा दिया जहाँ एक बड़ा सा स्क्रीन शोभायमान था और उसके इर्द-गिर्द सजे तमाम छोटे–बड़े आधुनिक यंत्र माहौल को और प्रभावशाली बना रहे थे। बाला ने आधुनिक यंत्रों के सहयोग से बड़े स्क्रीन पर वीडियो दिखाने शुरू कर दिये। वीडियो बड़े ही मनोहारी थे। अधिकांश में ये ही बताया और समझाया गया था कि यूँ तो ये एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है मगर हमारे विशेषज्ञों ने इसको अत्यधिक सहज और सरल बना दिया है। अब इससे भयभीत होने के दिन लद चुके हैं। पिताजी उनमें खो गये। वीडियो शो के समाप्त हो जाने के बाद मनोविज्ञान की मर्मज्ञ बाला जान चुकी थी कि पिताजी का डगमगाना अभी भी जारी है। इसलिये पिताजी के मन में उठ रहे यक्ष प्रश्नों का उत्तर देने का उचित समय अब आ गया है।
बाला ने सामने लगे वाइट बोर्ड पर मार्कर पेन से पिताजी को समझाने के उद्देश्य से लिखना शुरू कर दिया। लिखने के बाद उसने हाथ में एक सीधी छड़ी ले ली और लिखे अक्षरों पर छड़ी रख-रख कर मुस्कुरा-मुस्कुरा कर समझाने लगी—देखिये अंकल जी, हम पाँच प्रकार से आपकी और भइया की सेवा कर सकते हैं:
पहला: तकनीक का इस्तेमाल करके।
दूसरा: सामूहिक और बलपूर्वक नक़ल कराके।
तीसरा: नक़ली उम्मीदवार को बैठा के।
चौथा: जांचकर्त्ता को प्रभावित करके।
पाँचवाँँ: प्रश्न पत्र को लीक करा के।
क्षेत्र में हुई इस प्रगति ने पिताजी का दिल जीत लिया। वह गद्गद् हो गए। समझे वो अभी भी कुछ नहींं थे मगर उन्हें ये लगने लगा कि भटकते-भटकते वो सही जगह पँहुच गए हैं। और उनके व भइया के जीवन में रोशनी का बल्ब जलाने वाला स्विच इस बाला के पास ही है। मनोविज्ञान की महारथी बाला ने पिताजी का मन-मस्तिष्क पढ़ लिया। अब वह अगले चरण की ओर बढ़ चली और सेवा के तरीक़ों को विस्तार से समझाने लगी।
“देखिये अंकल जी, जब हम तकनीक का इस्तेमाल करते हैं तो मतलब हम तमाम उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं। ज़्यादातर ये ख़ुफ़िया उपकरण होते हैं जैसे माइक्रो ब्लूटूथ, मोबाइल सिम कार्ड, माइक्रोफोन, इयरफोन, स्कैनर क़लम वगैरह-वगैरह।” बाला की ये रहस्यमयी शब्दावली पिताजी के लिये काला अक्षर भैंस बराबर थी मगर बाला की प्रतिभा उनको मोह रही थी। पिताजी को लगने लगा था कि भइया अगर इन उपकरणों से लैस हो जाएँगे तो यूँ ही विभिन्न हथियारों से सज्जित सेना के जवान दिखने लगेगें। बाला ने पिताजी की ख़ुशी ताड़ ली थी। अब वह सरपट दौड़ चली। उसने छड़ी दूसरे स्थान पर रख दी।
“देखिये अंकल जी, दूसरे नम्बर का तरीक़ा देश का सबसे मान्यता प्राप्त तरीक़ा है और वर्षों से भरपूर चलन में है। बहुतेरे बड़े-बड़े पदों पर बैठे गुणीजनों ने इस तरीक़े का जम कर लाभ लिया है और वैतरिणी पार की है। इस तरीक़े में नोट्स, किताब आदि परीक्षा केन्द्र पर ले जाने की पूरी सुविधा रहती है। इससे भी काम न चले तो भइया के दोस्त, घर का कोई सदस्य या हमारा कोई कर्मचारी परीक्षा केन्द्र की दीवार फाँद कर नक़ल करा सकता है। इसके लिये वहाँ मौजूद परीक्षक, फ़्लाइंग स्कैव्ड के सदस्य और अन्य हितधारकों को साधने के लिये पैकेज में प्रावधान किये गये हैं।
“अंकल जी, तीसरा तरीक़ा है नक़ली उम्मीदवार को भइया की जगह या साथ बैठवा कर परीक्षा दिलवाना। इसमें हमें पेशेवर लोगों की मदद लेनी होती है। ये भइया के साथ ही फ़ॉर्म भरेगें। कोशिश रहती है कि परीक्षा केन्द्र में ये भइया के बग़ल में ही बैठें। परीक्षा ख़त्म होने से पहले भइया उससे कॉपी बदल लेगें।
“चौथा तरीक़ा परीक्षक और जाँचकर्त्ता को प्रभावित करना है। वैसे ये तरीक़ा धनी और रसूख़दार लोगों के लिये है। देश के बहुत से राज्यों में ये तरीक़ा सफलतापूर्वक लागू तो है मगर ख़र्चीला है।
“पाँचवाँँ तरीक़ा प्रश्न पत्र को लीक कराना है। इस तरीक़े में परीक्षा केन्द्र के लॉकर में चोरी से घुसकर प्रश्न पत्र की फोटो खींच ली जायेगी और परीक्षा शुरू होने से पहले ही भइया को उपलब्ध करा दी जायेगी।”
ये कहकर बाला ने छड़ी रख दी और मुस्कुरा कर पिताजी के सामने बैठ गयी। बाला का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण पिताजी को भीतर तक आह्लादित कर गया। वह भाव विभोर हो गये। बाला ने मुस्कुरा कर डील फ़ाइनल करने के अंदाज़ में कहा, “अब बताइये अंकल जी, भइया के लिये कौन सा पैकेज फ़ाइनल करते हैं?”
बाला ने पिताजी को इतना समय दिया था, ज्ञान दिया था, बुलबुले वाले शीतल पेय से तृप्त किया था, इससे ही पिताजी भाव विभोर थे। अब उनकी बारी थी लौटाने की। पिताजी ने बाला के ऊपर अपनी स्नेह-वर्षा धन के रूप में की। उन्होंने देश के सर्वाधिक मान्यता प्राप्त दूसरे नम्बर के तरीक़े को भइया के लिये सबसे उपर्युक्त पाया और उस पैकेज का अनुमोदन कर दिया। बाला ने पक्की रसीद बना दी। बाला ने मुस्कुरा कर पिताजी से आग्रह किया कि अब आप घर जा कर भइया को आश्वस्त कर दें कि वे अब हमारी छत्र-छाया में हैं और परीक्षा को ले कर अगर उनके मन में लेश मात्र भी भय है तो वो उसको निकाल कर फेंक दें। इस नम्बर दो तरीक़े को अपनाने वाले सभी छात्रों का दो दिवसीय आवासीय प्रशिक्षण शुरू हो रहा है, भइया उसमें अवश्य ही उपस्थित हों और उन रास्तों को जाने-समझे जिन पर अब उन्हें सरपट दौड़ना है।
भइया जब दो दिवसीय आवासीय प्रशिक्षण से वापस लौटे तो उत्साह से सराबोर थे। उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ गया था कि वह राह चलते किसी भी आदमी को बेवजह पीट सकते थे। उनका जोश सातवें आसमान पर पहुँचा हुआ था। अगर सातवें के आगे कोई आठवाँ या नौवाँ आसमान भी है ता जोश का ये उफान उस तक भी आसानी से पहुँच सकता था। इस जोश ने उनको सदा के लिए क़ानून, पुलिस, न्याय व्यवस्था जैसी किसी भी प्रणाली के बंधनों से मुक्ति दिला दी थी। अब वो बेख़ौफ़ थे। अज्ञात के भय से मुक्त थे।
और फिर परीक्षा का श्री गणेश हो गया। सरकार का जनता को आश्वासन था कि इस बार नक़ल विहीन परीक्षा की पूरी तैयारी है। आदेश थे कि अगर कोई भी नक़ल करता पाया जाए तो उसके ख़िलाफ़ सख़्त से सख़्त कार्यवाही की जाए। मगर पिताजी और भइया के पास बाला का आश्वासन था और वे निश्चिन्त थे।
आज गणित की परीक्षा है। साइकिल स्टैंण्ड पर शुल्क तिगुना है। ये शुल्क तिगुना क्यों है ये रहस्य तब खुला जब परीक्षा की निगरानी के लिये फ़्लाइंग स्कैव्ड ने छापा मारा। फ़्लाइंग स्कैव्ड आने के कुछ समय पहले ही साइकिल स्टैंण्ड पर तैनात लड़का तेज़ी से परीक्षा कक्ष में ‘फ़्लाइंग स्कैव्ड आ गया, फ़्लाइंग स्कैव्ड आ गया’ फुसफुसाता हुआ घुसा। जितने गुणी छात्र किताब खोलकर या पुर्चियों से परीक्षा की कॉपी पर धड़ाधड़ उतार रहे थे, वह उन सबकी किताब-पुर्ची उठा कर फ़ुर्ती से ग़ायब हो गया। उसके ग़ायब होते ही फ़्लाइंग स्कैव्ड के सदस्यों ने परीक्षा कक्ष पर धावा बोल दिया। फ़्लाइंग स्कैव्ड के सदस्य जब परीक्षा कक्ष में घुसे तब तक वहाँ राम-राज स्थापित हो चुका था। थोड़ी देर की उठा-पटक, छान-बीन, डाँट-फटकार के बाद राम-राज माहौल वाले परीक्षा केन्द्र से जब फ़्लाइंग स्कैव्ड वापस जा रहा था तो साइकिल स्टैंण्ड पर तैनात लड़का दौड़कर स्कैव्ड सदस्यों के पैर छू आया था।
जिन छात्रों ने बाला का पैकेज नहीं चुना था, उनके लिए सारे मार्ग बन्द हो गये हों, ऐसा नहीं था। कुछ तात्कालिक सेवाएँ भी परीक्षा केन्द्र पर उपलब्ध थीं। परीक्षा केन्द्र की खिड़की के ठीक नीचे लिखी हुई उत्तर पुस्तिकाएँ बिक्री के लिए मौजूद थीं। रेट अधिक था। परीक्षा कक्ष में मौजूद कुछ परीक्षार्थी मोल-भाव कर रहे थे—कितने की है? नीचे से विक्रेता दाम बताता—पाँच हज़ार!! परीक्षार्थी पूछता—पाँच सौ में दोगे? विक्रेता चीख़ कर कहता—नहीं। इसमें मोल-भाव नहीं। ये तत्काल सेवा है।
इस प्रकार ऐसे ही उत्सवी माहौल में परीक्षा चलती रही और अंततः समाप्त हुई।
नतीजा आ गया। भइया परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित हुए। परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई। आख़िर वह हो गया जिसका परिवार बेसब्री से न जाने कब से प्रतीक्षा कर रहा था। इस शुभ अवसर पर भइया ने पिताजी से इजाज़त माँगी। वह अपनी गणित की पुस्तकों का अन्तिम संस्कार करना चाहते थे। भइया बिल्कुल नहीं चाहते थे कि फिर कभी ये पुस्तकें उनके जीवन में जबरन घुसकर कोई संकट पैदा करें। पिताजी ने सहर्ष इजाज़त दे दी। भइया नदी किनारे चले गए। वहाँ पहुँच कर उन्होंने गणित की पुस्तकों को दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। उनका विधि-विधान से अन्तिम संस्कार किया और उनसे सदा के लिए मुक्ति पाई।
पिताजी बहुत प्रसन्न रहते हैं। काम से लौटकर वह घर में घुसते ही अब दुर्वासा नहीं हो जाते, बल्कि गाना गुनगुनाने लगते हैं। रह-रह कर वह भइया की बलैया लेते रहते हैं। अब उन्हें भइया का उज्जवल भविष्य दिखने लगा है। जिस राष्ट्र में पिता, पुत्र के उज्जवल भविष्य के लिए नक़ल के सहज मार्ग पर चलने को प्रेरित हो जाए, उस राष्ट्र का भविष्य तो उज्जवल है ही।
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