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पंच से पक्षकार

हरिप्रसाद और रामप्रसाद दोनों सगे भाई थे। उम्र के आख़िरी पड़ाव तक दोनों के रिश्ते ठीक-ठाक थे। दोनों ने आपसी सहमति से रामनगर चौराहे वाली अपनी पैतृक ज़मीन पर दुकान बनाने का सोचा, ताकि उससे जो आय हो उससे उनका जीवन सुचारु रूप से चल सके। 

दुकान का काम चल ही रहा था तभी हरिप्रसाद और रामप्रसाद के बीच कुछ बातों को लेकर विवाद हो गया और उनमें बातचीत होनी बंद हो गयी। जिससे उनकी दुकान का काम भी रुक गया। दोनों एक दूसरे पर ख़ूब आरोप-प्रत्यारोप भी लगाने लगे। बढ़ते विवाद को देख उसे सुलझाने के लिए उनके पड़ोसियों ने मोहल्ले के कुछ लोगों को जुटाकर एक पंचायत बुलाई, परन्तु पंचायत के सामने भी दोनों आपसी विवाद को ख़त्म करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। बल्कि एक दूसरे पर एक से बढ़कर एक आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे थे। पंचायत ने भी मामले को बढ़ते देख उन्हें कुछ दिनों के लिए एक-दूसरे से दूर रहने की कड़ी हिदायत दी जिससे उनका विवाद हिंसा का रूप धारण ना कर सके। इसके साथ ही पंचायत ने दुकान के बचे आधे-अधूरे काम को पूरा करने की ज़िम्मेदारी गाँव के पढ़े-लिखे एक व्यक्ति विनोद को दे दी ताकि दोनों भाइयों के विवाद से उनके धन का नुक़्सान ना हो। हरिप्रसाद और रामप्रसाद ने भी विनोद को पंच परमेश्वर का दर्जा देते हुए दुकान के बचे हुए काम को पूरा करने के लिए विनोद के नाम पर सहमत हो गए। 

प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं कहानीकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर की तरह यहाँ भी समाज में हरिप्रसाद का सम्मान उनके धन से तो रामप्रसाद का सम्मान उनके व्यक्तिगत अच्छे व्यवहार की वजह से लोगों में था। परन्तु, शास्त्रों में कहा गया है कि कलयुग में मूर्ख, चोर और बेईमान आदमी अपने पद और धन के कारण समाज में श्रेष्ठ होगा और उसके प्रति लोगों का झुकाव जल्दी होगा। ठीक वैसे ही विनोद का झुकाव हरिप्रसाद की तरफ़ जल्दी हो गया। विनोद हरिप्रसाद की सभी बातों का अमल दुकान के कार्यों में करता और यदि रामप्रसाद इसका विरोध करना चाहता तो उसकी बातों को अनसुना कर देता या रामप्रसाद को तीन-पाँच पढ़ाकर उसकी बात टाल देता। कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा और धीरे-धीरे रामप्रसाद को भी इस बात का एहसास होने लगा की वह ठगा जा रहा है और उसके साथ अन्याय हो रहा है। उसने इसके संदर्भ में विनोद से सीधा बात करना ही उचित समझा। 

अगली सुबह खेत और घर के ज़रूरी काम निपटा रामप्रसाद विनोद के घर जा पहुँचा और कहने लगा, “विनोद भाई, पंचायत की सहमति पर मैंने आपको पंच परमेश्वर माना है और इसलिए एक पंच के नाते आपसे निष्पक्ष न्याय करने की गुहार लगाने आया हूँ।” 

इतना सुनते ही विनोद ग़ुस्से में रामप्रसाद को भला बुरा कहते हुए हरिप्रसाद के सामने उसकी तुच्छ औक़ात की बात करने लगा और हरिप्रसाद के तारीफ़ों की पुल बाँधने लगा। विनोद के इस स्वभाव और एक पक्षीय नज़रिया को देखते हुए रामप्रसाद ने कहा, “विनोद जी, आज भले ही मेरी आर्थिक औक़ात हरिप्रसाद से छोटी है, परन्तु हरिप्रसाद के चंद रुपयों के लालच में आपने अपनी औक़ात पंच परमेश्वर जैसे ऊँचे दर्जे से गिराकर एक पक्षकार के स्तर की बना ली।”

इतना सुनते ही विनोद के चेहरे का रंग उड़ गया और रामप्रसाद गमछे से अपना पसीना पोंछते हुए अपने घर की तरफ़ चल पड़ा।

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