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कोख का बँटवारा

रामनरायण के दो बेटों का नाम रमेश और सुरेश थे। युवा अवस्था में रामनारायण की मृत्यु होने के बाद उनकी पत्नी रमादेवी ने रामनारायण के जमा पूँजी और पूर्वजों से मिली संपत्ति से दोनों बेटों की परवरिश की। रमादेवी का बड़ा बेटा रमेश पढ़-लिखकर शहर में सरकारी विभाग पर बड़े बाबू के पद पर आसीन हुआ तो छोटा बेटा सुरेश गाँव में ही खेती-बाड़ी सहित अन्य सामाजिक कार्य करने लगा। एक भाई शहर में, तो दूसरा गाँव में अपने परिवार के साथ रहने लगा। रमादेवी अपने छोटे बेटे सुरेश के साथ गाँव में ही रहती थी। रमेश और सुरेश दोनों के रिश्ते सामान्य थे तथा दोनों एक दूसरे के भावनाओं का पूरा सम्मान करते थे। सुरेश कभी अपने बड़े भाई के सामने ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता।

ख़ैर, दोनों भाई अपने-अपने तरीक़े से अपने परिवार के पालन पोषण में लगे रहे और दोनों के बच्चें पढ़-लिखकर शहर में नौकरी करने लगे। कुछ वर्षों बाद रमेश भी रिटायर हो सरकारी विभाग से पेंशन लेने लगा और सुरेश गाँव में ही रमेश से साथ आपसी रज़ामंदी से हुए बँटवारे में मिली अपने हिस्से की ज़मीन को धन अर्जन का साधन बना अपना जीवन बिताने लगा। 

कुछ सालों बाद अचानक एक दिन सुरेश को करोड़ों रुपए की लॉटरी लग गई। ये बात जब रमेश को पता चली तो वह छोटे भाई के बदलते हालात देख बड़ा ख़ुश हुआ, पर रमेश के बीवी और बच्चों को सुरेश के परिवार की ये ख़ुशी फूटी आँख नही सुहाई और रमेश की बीवी, बच्चे रमेश को ताने देने लगे और सुरेश के साथ हुए बँटवारे को न मानने और उसपर सुरेश के द्वारा बनाई गई संपत्ति में हिस्सेदारी माँगने के साथ जायदाद के पुनः बँटवारे की बात को कहने लगे। पहले तो रमेश अपने बीवी बच्चों की बात नज़रंदाज़ करता रहा। लेकिन आख़िर में रमेश पर ये कहावत चरितार्थ हुई कि "जो किसी से सामने नही झुकता उसे उसके अपने झुका देते है।" अंततः रमेश भी अपने परिवार के दबाव में आ छोटे भाई सुरेश के साथ पूर्व में आपसी रज़ामंदी से हुए बँटवारे को ना मानते हुए सुरेश द्वारा बनाई गए चीज़ों में हिस्सा माँगने लगा। ये देख सुरेश ने रमेश से कहा, “भैया जैसे आपने अपने पूरे जीवन में नौकरी की और अब आप सरकार से मिलने वाली लाखों रुपए की पेंशन के हक़दार बने, वैसे ही मैंने भी अपना पूरा जीवन आपसी सहमति से हुए बँटवारे से अपने हिस्से में मिली ज़मीन पर इन चीज़ों का निर्माण करने में लगा दिया ताकि इसके होने वाले दो रुपए के आमदनी से मैं अपना जीवन बीता सकूँ।”

रमेश की अंतरात्मा तो सुरेश की इन बातों को सही बता रही थी। पर बीवी और बच्चों की ज़िद के कारण रमेश इसे सहर्ष स्वीकार नहीं कर पा रहा था और पूर्व में हुए बँटवारे को मानने को तैयार नहीं हो रहा था। सुरेश भी अपनी कही बातों को बार-बार दुहराये जा रहा था। धीरे-धीरे इन बातों का सिलसिला बहस और झगड़े का रूप ले तेज़ ऊँची आवाज़ के साथ पूरे कमरे में गूँजने लगी। 

होते शोर के बीच कमरे में एक किनारे बैठी इनकी माँ रमादेवी अपनी नम आँखों से ऊपर आसमान की तरफ देखते हुए ईश्वर से कह उठी, "हे! ईश्वर, ये तू संपत्ति का बँटवारा नहीं करवा रहा बल्कि मेरी कोख का बँटवारा करवा रहा है।"

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