पत्ते पीले पड़ गए इसके
काव्य साहित्य | कविता जतिन जोशी1 Sep 2023 (अंक: 236, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
समय से समर में, ये बूढ़ा भी हार गया आज
पीले पड़ गए इसके . . .
जब छोटा था मैं, ये भी मेरे जैसा ही था।
साथ बड़े हुए हम।
पर आज इसके सामने तिनके जैसा हूँ मैं।
इतना विशाल होकर भी काँप रहा ये आज
पीले पड़ गए इसके . . .
इसने हर मौसम की मार झेली है।
अपने सौतेले भाई को मरते हुए भी देखा है इसने।
बस देख न सका ये अंत अपना
पीले पड़ गए इसके . . .
कभी सुनाता था अपनी मज़बूती के क़िस्से मुझको।
आज मेरा ही सहारा ढूँढ़ रहा है।
पक्षी भी अनाथ कर चल दिए इसको।
दीमकों को अब ये किराया दे रहा है
पीले पड़ गए इसके . . .
लोग अपना चूल्हा तैयार कर रहे हैं।
आज बोली लगने वाली है इसके शरीर की।
शायद गोद लेना चाहते हैं इस अनाथ को।
पर क्या वो जानते नहीं?
पीले पड़ गए इसके . . .
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