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प्रेमचंद

 

एक ख़्वाहिश है, 
कि कभी जो तुम एक दोस्त बनकर मिलो, 
तो कुल्हड़ में चाय लेकर, 
तुम्हारे साथ सुबह का कुछ वक़्त गुज़ारूँ, 
तुमसे बातें करते शायद देख पाऊँ, 
तुम्हारी आँखों में छुपे वो सारे राज़, 
जो लाख कोशिशों के बावजूद, 
तुम्हारे अन्दाज़ में नहीं देख पाया, 
ये तुम्हारा समाज . . . 
 
मसलन, छोटे से गाँव का एक मेला, 
जो बच्चों के लिए महज़ खिलौनों और 
मिठाइयों की दुकान में होता है सिमटा, 
उसी ईदगाह के मेले में, कैसे दिख जाता है तुम्हें, 
वो नन्हा सा हामिद, 
अपनी बूढ़ी दादी के लिए ख़रीदता, 
एक तीन आने का चिमटा . . . 
 
घूसखोर नौकरशाहों के समाज में, 
जहाँ हमें अंदाज़ा भी नहीं, 
कि कोई ईमानदार अफ़सर भी कहीं होगा, 
कैसे मिल जाता है तुम्हें वो एक बंशीधर, 
सेठ अलोपीदीन के पैसों के सामने चट्टान सा खड़ा, 
तुम्हारा वो नमक का दारोग़ा . . .
 
एक समाज जहाँ, बदले की भावना का फ़ैशन हो, 
लोग बेधड़क रच लेते हों, “जैसे को तैसे” का षड्यंत्र, 
कैसे मिल जाता है तुम्हें वो बूढ़ा बेसहारा भगत, 
अपने इकलौते बेटे के हत्यारे के बेटे में, 
जो निःस्वार्थ फूँक देता है, जीवन का मंत्र . . . 
 
एक समाज जहाँ, 
माँ बच्चे की ऊँगली पकड़कर 
सिखाती हो गिरना और सँभलना, 
तुम्हें कैसे दिख जाती है वो बूढ़ी काकी, 
और उसका बचे-खुचे खाने में 
पूड़ी-जलेबी के टुकड़े तलाशना . . .
 
एक समाज जहाँ, ग़रीबी के 
क़िस्से आम से लगते हों, 
मन में क्यूँ चिपकी रह जाती है, 
सिर्फ़ तुम्हारी लिखी हर बात, 
कफ़न के पैसे से शराब पीते 
आज भी नज़र आते हैं कहीं घीसू और माधव, 
तो किसी खेत में पड़ा कोई हलकू, 
ठंड में आज भी गुज़ार लेता है पूस की एक रात . . .
 
जिस देश में उसका राजा सबको, 
सिर्फ़ हिंदू या मुसलमान दिखायी देता है, 
ना क़ायदे से कोई परीक्षा होती है, 
ना परीक्षकों में सुजान सिंह जैसा कोई 
वफ़ादार दीवान दिखायी देता है, 
उसी देश में कैसे मिल जाते हैं तुम्हें, 
अलगू चौधरी और ज़ुम्मन मियाँ 
कैसे समझ लेते हो तुम, 
कि इंसान जब पंच बनता है, 
तो सिर्फ़ इंसान नहीं रह जाता, 
वो परमेश्वर बन जाता है, 
सिर्फ़ हिंदू या मुसलमान नहीं रह जाता . . .
  
चाय की आख़िरी चुस्की से पहले, 
ये सब मुझे पूछना है तुमसे, 
और फिर जाने से पहले तुम्हें ग़ौर से देखना है, 
देखना चाहूँगा, 
बिना धनपत राय के धन के, 
बिना नवाब राय की नवाबी के, 
कैसी थी तुम्हारी तक़दीर, 
एक फटा हुआ जूता, 
और मटमैले कुर्ते में लिपटा, 
कैसा था तुम्हारा वो दुबला शरीर, 
जिसने महज़ छप्पन सालों में तैयार कर दी, 
कहानी, नाटक और उपन्यासों की, 
इतनी बड़ी जागीर . . . 
 
जब हास्य लिखा, तो हँसा दिया, 
जब दर्द लिखा, तो रुला दिया, 
सिर्फ़ एक फ़िल्म लिखी, सोज़े वतन, 
उस पर भी दंगा करा दिया, 
इतनी अलग विधाओं में, 
इतना कुछ कैसे लिख पाए, 
प्रेम और कल्पना में लिपटे साहित्य को, 
वास्तविकता की धूप में कैसे खींच लाए, 
और आख़िर में, 
छूना चाहूँगा एकबार तुम्हारी दवात में रखी, 
भावनाओं की वो जादुई स्याही, 
नमन है तुम्हें मुंशी प्रेमचंद्र, 
तुम्हीं हो सही मायने में, 
क़लम के सिपाही . . .!

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