पुत्र के आराध्य
काव्य साहित्य | कविता कपिल साहू15 Apr 2022 (अंक: 203, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
क़लम पूछती है मुझसे—
तुझे विदित है ओ लेखक! उनका वर्णन तू न कर पाएगा।
तालाब नहीं वो सागर है, क्या थोड़े जल से भर जायेगा?
कर प्रयत्न जितना भी मगर हर शब्द सूक्ष्म पड़ जायेगा।
मैं भी हो जाऊँगा अस्तित्वहीन पर मन न तेरा भर पायेगा।
मैं कहता क़लम से—
मुझे विदित है, सहज नहीं उनकी महिमा का वर्णन कर पाना।
मुझे विदित है, सहज नहीं उनके त्याग का वर्णन कर पाना।
प्रयास करूँगा इस कविता में महानतम शब्दों का उपयोग करूँ,
सामर्थ्य नहीं हर शब्दों में यह कठिन कार्य कर पाना।
क्या तेज है उसमें, जिसके सम्मुख दिनकर भी शीश झुकाते हैं।
क्या बल है उसमें, जिसके सम्मुख हिम-पर्वत पिघल जाते हैं।
उस महायशस्वी के चरणों में बारम्बार प्रणाम करो,
जिसके ऊपर सम्मानपूर्वक इंद्र भी पुष्प बरसाते हैं।
निज बालक हेतु वो सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं,
पुत्र को पहनाकर नए वस्त्र, पुराने वो धारण कर लेते हैं,
उनसे तुलना कर पाना तो हरि के भी वश की बात नहीं,
वो पिता हैं, समयानुसार, प्रकृति भी अपने अनुकूल कर लेते हैं।
पर इस युग में तो पिता बोझ बन के रह गया है।
योग्य बनाकर पुत्र को, स्वयं उसकी यातनाएँ सह गया है।
जीवित रहने दो मानवता को और बंद करो ये अपराध,
क्योंकि उसका पालन करने वाला वृद्धाश्रम भी भर गया है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं