सोच . . .
काव्य साहित्य | कविता अमित शर्मा9 Jan 2008
अक़्सर मैं कुछ लोगों की
बातों पर बस मुस्काता हूँ
देख कर उनकी सोच समझ
ख़ुद सोच में पड़ जाता हूँ
ये कर देंगे, वो कर देंगे
ये ग़लत है, ये नहीं होने देंगे
नारे वो सब लगाते हैं
काम नहीं कुछ और उन्हें
बस बातों की वो खाते हैं
और बातों में ही वो जीते हैं
आए जब मौक़ा कुछ करने का
दूर नज़र न ये आते हैं
कहना तब इन का होता है
हमने तो बस सोचा था
सोच से कहाँ कुछ होता है
हम तो अकेले ही हैं
अकेले जन से क्या होता है?
अब मूढ़ों को कौन बताए
सोच से ही सब होता है
एक अकेला सोच अपनी बदले
देख उसे दूजा फिर सोचे
देख बदलता फिर दूजे को
तीसरे को लगता वो भी सोचे
सोच में वो ताक़त
जब बढ़ कर रूप अपना लेले
सिहांसन ख़ुद हिलने लगता है
और समृद्धि का फूल
हर तरफ़ खिलने लगता है . . .
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