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तुम भी भुलक्कड़ हो

 

“आज आप सुबह-सुबह रसोई में क्या कर रहे हैं। कुछ चाहिए क्या!” उबासी लेते हुए अनामिका ने राजेश से कहा।

“कुछ नहीं चाहिए प्रिय। आज बस मन किया, तुम्हें अपने हाथ की चाय बनाकर पिलाऊँ।”

“लगता है सूरज पश्चिम से निकला है। क्या कोई खास बात है।”

“ख़ास दिन तो है। तभी तो तुम्हें आराम देने का सोचा था। हम पुरुषों को तो फिर भी अवकाश मिल जाता है। कभी होली, कभी दिवाली, कभी कैजुअल लीव। तुम महिलाओं को रसोई से कभी रिटायरमेंट ही नहीं मिलता।”

“कौन-सा ख़ास दिन है। मुझे तो याद नहीं। आज न तो मेरा जन्मदिन है और न ही सालगिरह।”

“मुझे नहीं पता था, मेरी तरह तुम भी भुलक्कड़ हो। तभी तो इतना ख़ास दिन भूल गई हो।”

“अब पहेलियाँ मत बुझाओ। बताना है तो बताओ, नहीं तो मैं चली। बहुत काम है,” बनावटी गुस्सा दिखाते हुए अनामिका ने कहा।

“तुम बालकनी में बैठकर प्रकृति का नज़ारा देखो। मैं चाय लेकर हाज़िर होता हूँ, इतने ख़ास दिन ग़ुस्सा करना सही नहीं।”

“ठीक है भई। पर चाय में देर मत लगाना, पता है न चाय के बिना मेरा पेट . . .” कहकर रुक जाती है।

“हाँ-हाँ मालूम है। तीन साल हो गए, साथ रहते हुए। इतना तो जान ही गया हूँ।”

“चाय तो बहुत बढ़िया बनी है। इतनी अच्छी तो मेरी भी नहीं बनती। क्या-क्या डाला है,” सिप लेते हुए अनामिका ने कहा।

“बताऊंँ इसमें क्या डाला है। बहुत सारा प्यार।”

अनामिका की आँखों में शरारत से झाँकते हुए राजेश ने कहा।

“तुम कभी शरारत से बाज़ नहीं आओगे। अब बता भी दो, कौन-सा ख़ास दिन है।“

“आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। तुम कैसे भूल गई? हर जगह तो इसके चर्चे हैं। क्या सुना नहीं?”

“धत तेरे की। खोदा पहाड़, निकली चुहिया। जिसके पास 365 दिन ध्यान रखने वाला, इतना प्यार करने वाला पति हो, उसके लिए यह दिन कोई महत्व नहीं रखता। यह दिन तो उनके लिए महत्व रखता है, जिनके पति सिर्फ़ दिखावे के लिए एक दिन उन्हें ख़ुश करते हैं। मानो किसी रोते बच्चे को टॉफी देकर चुप कराया गया हो।“

“अच्छा मेरी मुमताज़। अब यह तो बताओ, इस ख़ानसामें के साथ कहीं बाहर चलोगी या उसे आज रसोई में खटना होगा, क्योंकि तुम्हें तो आज के दिन मैं किचन में घुसने नहीं दूँगा।”

“चलो हटो शैतान कहीं के। अब ज़रा फ़्रेश हो जाऊँ, फिर बताती हूँ, ख़ानसामें को उसके मज़ाक की क्या सज़ा मिलेगी।”

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