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मुसाफ़िर दोस्त 

 

“थैंक्स गॉड। आख़िर मैंने गाड़ी पकड़ ही ली। मुझे ऐसे ही पीटी उषा नहीं कहते,” अपनी उखड़ी साँसों को क़ाबू में करते हुए सिमरन बुदबुदाई और आँखें बंद करके सीट पर पीठ टिका ली। 

अचानक एक हमउम्र लड़की की मधुर आवाज़ गूँजी, “क्या मैं आपके साथ कुछ देर के लिए सीट शेयर कर सकती हूँ।”

“जी श्योर।” खिसकते हुए सिमरन ने कहा। 

“जी धन्यवाद। असल में मेरी सीट दूसरे कंपार्टमेंट में है। ग़लती से इसमें चढ़ गई। जैसे ही अगला स्टेशन आएगा। चली जाऊँगी,” सीट पर बैठते हुए लड़की ने कहा। 

“कोई परेशानी नहीं। आप आराम से बैठिए। वैसे आपको कहाँ जाना है।” 

“जयपुर। मेरी कल मॉडर्न स्कूल में ज्वाइनिंग है; और आप?” 

“बहुत-बहुत बधाई हो। क्या संयोग है! मैं भी ऑफ़िस के काम से जयपुर जा रही हूँ। आपका शुभ नाम जान सकती हूँ?” 

“शुभकामना के लिए आभार। मेरा नाम रंजना है। आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई।”

“मुझे भी। मेरा नाम सिमरन है। आप चाहें तो मुझे मुसाफ़िर दोस्त भी कह सकती हैं।”

अगला स्टेशन आने वाला था। सीट से उठते समय रंजना ने सिमरन से कहा, “धन्यवाद मुसाफ़िर दोस्त। ईश्वर ने चाहा तो फिर मुलाक़ात होगी,” कहकर जल्दी से दरवाज़े की ओर बढ़ गई। 

तभी कंपार्टमेंट में गाना गूँज उठा, आदमी मुसाफ़िर है आता-जाता रहता है। सुनकर रंजना ने मुड़कर पीछे देखा। एक साथ ही दोनों के मुखमंडल पर मुसकराहट छा गई। 

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